________________
समयसार
३५० प्रय पैराग्यसामर्थ्य दर्शयति
जह मज्जं पिक्माणो अरदिभावेण मज्जदि ण पुरिसो। दवभोगे अरदो णाणी वि ण वज्झदि तहेव ॥१६६॥
परति भाबसे जैसे, मदिरा पीता पुरुष नहीं मदता।
द्रव्यभोगमें तैसे, विरक्त ज्ञानी नहीं बँधता ॥१६॥ यथा मद्यं पिबन् अरतिभावेन माद्यति न पुरुषः । द्रव्योपभोगे अरतो ज्ञान्यपि न बध्यते तथैव ।।१६६
यथा कश्चित्पुरुषो मैग्यं प्रति प्रवृत्ततीव्रारतिभाव: सन् मैरेयं पिवन्नपि तीवारतिभावसामर्थ्यान्न माद्यति तथा रागादिभावानामभावेन सर्वद्रव्योपभोगं प्रति प्रवृत्ततीव्रविरागभावः
नामसंज्ञ-जह, मज्ज, पित्रमाण, अरदिभाव, ण, पुरिन, दवभोग, अरद, पाणि, वि. ण, तह, एत्र । धातुसंज–पी पाने, मम गवे, वज्झ बंधने । प्रातिपदिकः- यथा, मद्य, पिवमान, अरतिभाव, न, पुरुष, द्रव्योपभोग, अरत, ज्ञानिन्, अपि, न, तथा, एव । मूलधातु-पा पान भ्वादि, मदी हर्षे दिवादि, बन्ध बन्धने । पदविवरण-जह यथा-अव्यय । मज्ज मर्य-द्वितीया एक० । पिवमाणो पिबन्-प्रथमा एक. द्रव्याथिकनय (२४अ)।
योग--बंध से छुटकारा पाने के लिए वर्तमान कर्मफलका ज्ञातामात्र रहकर निविकल्प अधिकारस्वभाव अन्तस्तत्त्वकी आराधना करना ॥१६॥
अब वैराग्यको सामर्थ्य दिखलाने हैं---[यथा] जैसे [पुरुषं] कोई पुरुष [मद्य] मदिराको [अरतिमावेन] अप्रीतिसे [पिवन] पीता हुमा [न माद्यति] मतवाला नहीं होता [तर्थब] उसी तरह [जानी अपि] ज्ञानी भी द्रव्योपभोगे] द्रव्य के उपभोगमें [परतः] विरक्त होता हुमा [न बध्यते] कर्मोसे नहीं बनता।
तात्पर्य--कर्मोदयवश उपभोग होनेपर भी मूल विरक्तिके कारण ज्ञानी बँधता नहीं
टीफार्थ---जैसे कोई पुरुष मदिराके तीव्र अप्रीतिभाव वाला होता हुमा मदिरा (शराब) को पीता हुआ भो तीन अरतिभावके सामर्थ्यसे मतवाला नहीं होता, उसी तरह ज्ञानी भी रागादिभावोंके प्रभावसे सब द्रव्योंके उपभोगके प्रति तीन विरागभाव में वर्तता हुमा विषयोंको भोगता हुमा भी तीन विरागभावको सामर्थ्यसे कर्मोंसे नहीं बंधता।
अब कलशरूप काव्यमें उत्थानिका कहते हैं--नाश्नुते इत्यादि । अर्थ-~-यह पुरुष, विषयोंको सेवता हुनर भी विषय से वनेके निजफलको नहीं पाता, क्योंकि वह ज्ञान वैभव तथा विरागताके बलसे विषयोंकर सेवने बाला होनेपर भी सेवने वाला नहीं है ।