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________________ ३४९ निर्जराधिकार मथ ज्ञानसामर्थ्य दर्शयति जह विसमुवमुज्जंतो वेजो पुरिसो ण मरणमुवयादि। पुग्गलकम्मस्सुदयं तह भुजदि णेव वज्झए णाणी ॥१६॥ जैसे विष उपभोगी, वैद्य पुरुष मरणको नहीं पाता। पुस्गल कर्म उवयको, भोगे नहि विज्ञ जन बंधता ॥१६॥ यथा विषमुपभुंजानो वैद्यः पुरुषो न मरणमुपयाति । पुद्गलकर्मण उदयं तथा भुक्ते नैव बध्यते ज्ञानी। यथा कश्चिद्विषवैद्यः परेषां मरणकारणं विषमुप जानोऽपि अमोघविद्यासामर्थ्येन निरु. बतच्छक्तित्वान्न म्रियते, तथा अज्ञानिनां रोगादिभावसद्भावेन बंधकारणं पुद्गलकर्मोदयमुप . जानोऽपि अमोघज्ञानसामर्थ्यात् रागादिभावानामभावे सति निरुद्धतच्छक्तित्वात् न बध्यते हानी ।। १६ नामसंज्ञ—जह, विस, उपभुज्जत, वेज्ज, पुरिस, ण, मरण, पुग्गलकम्म, उदय, तह, ण, एव, णाणि। धातुसंज्ञ-उव-भुज भक्षणे भोगे च, उव-जा प्रापणे, भुंज भोगे, बझ बंधने । प्रातिपविकयथा, विष, उपभुज्यमान, वैद्य, पुरुष, न, मरण, पुद्गलकर्मन्, उदय, तथा, न, एब, शानिन् । मूलधातु प्रापणे, उत-अय गतो, भज भोगे, बंध बंधने । पद विवरण-जह यथा--अव्यय । विसं विषं-द्वितीया एकवचन । उवभुज्जतो उप जान:-प्रथमा एक० कर्तृ विशेषण । वेज्जो वैद्य:-प्रथमा ए० । पुरिसो पुरुषःप्रथमा एक कर्ताकारक । ण न-अव्यय । मरण-द्वि० ए० कर्मकारक । उवयादि उपयाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । पुग्गलकम्मस्स पुद्गलकर्मण:-षष्ठी एक० । उदयं-द्वि० एक० । तह तथा अव्यय । भुंजदि भुंक्ते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । न, एव, बज्झए बध्यते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । णाणी ज्ञानी-प्रथमा एकवचन ॥१६५।। उदय भोगनेमें प्राता है तो भी प्रागामी बंध नहीं करता। यह सम्यग्ज्ञानकी सामर्थ्य है ।। प्रसंगविवरण---अनन्तरपूर्व गाथामें भावनिर्जराका स्वरूप बताते हुए ज्ञान व वैराग्य के बलकी महिमा दिखाई थी। अब इस गाथामें उसी ज्ञानका सामर्थ्य दिखाया गया है ।। तथ्यप्रकाश----१--तत्त्वज्ञानी शुभ अशुभ कर्मफलको भोगता हुआ भी ज्ञानमय प्रतीति के कारण कर्मसे नहीं बँधता है। २-प्रज्ञानी जीव शुभ प्रशुभ कर्मफलमें प्रासक्त होनेके कारण कर्मसे बँधता है। ३.ज्ञानस्वभावको दृष्टिके कारण द्रव्यप्रत्ययको कर्मबंधनिमित्तत्वशक्ति निरुद्ध हो जाती है, अतः ज्ञानी कर्मसे नहीं बंधता । सिद्धान्त -१.. सहजशुद्ध अविकार ज्ञानस्वभावमें प्रात्मत्वकी भावनासे पौद्गलिक कोका निर्जरण हो जाता है । २- उपभोगमें रागादिभावके प्रभावसे कर्मबन्ध नहीं होता। दृष्टि-१- शुद्धभावनापेक्ष शुद्धद्रव्याथिकनय (२४ब)। २- उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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