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________________ ३४८ समयसार I जैव स्यात् । तद् ज्ञानस्यैव सामर्थ्य विरागस्यैव वा किल । यस्कोऽपि कर्मभिः कर्म भुजानोऽपि न बध्यते ।। १३४ ।। ।। १६४ ।। जायदि जायते - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । सुखं प्रथमा एक वा अव्यय । दुक्खं दुःख-प्रथमा एक० | वा अध्यय । तं तत् सुदुक्खं सुखदुःख उदिष्णं उदीर्ण-प्रथमा एकवचन या द्वितीया एकवचन । वेद वेद्यते या वेदयते - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया । अह अथ - अव्यय । णिज्जरं निर्जरां द्वितीया एक० | जादि याति वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचम् ।। १६४ ।। सिद्धान्त - ( १ ) कर्म रससे विविक्त शुद्ध ज्ञानमात्र के अनुभव से विभावनिर्जरण होता है । (२) विभावनिर्जरण होनेपर द्रव्यनिर्भरा होता हो है । दृष्टि - १ - शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय ( २४ ब ) । २ - उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिक (२४) । प्रयोग - कर्मोदयज सातासावाविकल्पसंकट से दूर होनेके लिये प्रतिफलित कर्मरसको परभाव जानकर उससे विमुख होकर अपने सहज ज्ञानरसका स्वाद लेनेका पौरुष करना ।। १३४।। अब भागेके कथनको सूचनाका कलश कहते हैं-तज्ज्ञान इत्यादि । अर्थ- वास्तव में वह सामर्थ्य ज्ञान अथवा वैराग्यकी है कि कोई कर्मको भोगता हुआ भी कर्मसे नहीं बँधता | सो अब उस ज्ञानको सामर्थ्य दिखलाते हैं - [ यथा] जैसे [वैद्यः] वैद्य [ पुरुषः ] पुरुष [ विषं उपभुजानः ] farst भोगता हुआ भी [ मरणं] मरणको [न उपयाति ] नहीं प्राप्त होता [तथा ] उसी तरह [ज्ञानी ] ज्ञानी [पुद्गलकर्मणः ] पुद्गल कर्मके [ उदयं ] उदयको [भुक्ते ] भोगता है तो भी [नैव बध्यते ] बंधता नहीं है । तात्पर्य - अविकार अन्तस्तत्व के ज्ञान होनेके सामर्थ्य से कर्मफलभोग में उपेक्षा होनेके कारण ज्ञानी के संसारबन्धक बन्ध नहीं होता । टोकार्थ -- जैसे कोई वैद्य, दूसरेके मरणका कारणभूत विषको भोगता हुआ भी श्रव्यर्थं विद्याकी सामर्थ्य से विषकी मारणशक्तिके निरुद्ध हो जानेसे विषसे मरणको प्राप्त नहीं होता, उसी तरह प्रज्ञानियोंको रागादि भावों के सद्भावसे बंधके कारणभूत पुद्गलकर्मके उदय को भोगता हुआ भी ज्ञानी ज्ञानकी अमोध सामर्थ्य से रागादिभावों के प्रभाव होनेपर कर्मके उदय की आगामी बंध करने वाली शक्ति निरुद्ध हो जानेसे आगामी कर्मोसे नहीं बंधता । विद्याकी सामर्थ्य से विषकी मारणमक्तिका उससे नहीं मरता, उसी तरह शामीके ज्ञान हटा देता है । इस कारण उसके कर्मका भावार्थ - जैसे कोई वैद्य पुरुष अपनी प्रभाव करता है सो वह उस विषको खानेपर भी की सामर्थ्य से कर्मके उदयको बंध करने रूप शक्तिको
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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