________________
निर्जराधिकार
३४७ अथ मावनिर्जरास्वरूपमावेदयति
दब्वे उवभुजंन णियमा जायदि सुहं वा दुक्खं वा। तं सुहदुक्खमुदिण्णं वेददि अह णिज्जरं जादि ॥१६॥
व्रव्य उपभोग करते, सुख अरु दुःख उत्पन्न होता है ।
उस उदीर्ण सुख दुःखको, वेदत हो कर्म झड़ जाता ॥१६४॥ द्रव्ये उपभुज्यमाने नियमाजाबले सुई वा दुवा । तत्सुखदुःखमु दीर्ण वेदयते अथ निर्जरा याति ।।१६४।।
उपभुज्यमाने सति हि परद्रव्ये तन्निमित्तः सातासाताविकल्लानतिक्रमणेन वेदनायाः सुखरूपो दुःखरूनो वा नियमादेव जीवस्य भाव उदेति । स तु यदा वेद्यते तदा मिथ्यादृष्टे रामादिभावानां सद्भावन बनिमित्तं भूत्वा निर्जीयमारगोप्यनिर्जीर्णः सन् बंध एवं स्यात् । सम्यग्दृष्टेस्तु रागादिभावानामभावेन बंधनिमित्तमभूत्वा केवलमेव निर्जीयमाणो निर्जीर्णः सन्नि
नामसंज्ञ. दब्बा, उवभुजंत, णियम, सुह, वा, दुःख, वा. त. सुहवस उदिण्ण, अह, णिज्जर । धातुसंज्ञ-दव प्राप्ती, उब-भुज भक्षरणे भोगे च, जा प्रादुर्भावे, बेद वेदने, जा गतौ । प्रातिपदिक · द्रव्य, उपभुज्यमान, नियम, सुख, वा, दुःख, बा, तत्, सुखदुःख, उदीर्ण, अथ, निर्जरा । मूलधातु-उप-भुज पालनाभ्यवहारयोः, जनी प्रादुर्भावे दिवादि, विद चेतनास्याननिवासेषु चुरादि, या प्रापणे अदादि । पदविवरण-दब्वे द्रव्ये-सप्तमी एका० । उब भुज्जते उपभुज्यमाने-सप्तमी एक० । णियमा नियमानु-पंचमी एक० । स्थिति पूर्ण होनेपर या पहिले उदय पानेपर मुम्ब दुःख भाव नियमसे उत्पन्न होते हैं उनको अनुभव करते हुए मिथ्पादृष्टि के तो रागादिक निमित्तका सद्भाव होनेसे मागामी कर्मका बंद करके निर्जरा होती है सो वह निर्जरा किस कामको, गिनती में भी नहीं, वहाँ तो बन्ध ही किया गया । और सम्यग्दृष्टिके सुख दुःख भोगनेपर भी उसमें रागादिकभाव नहीं होते, इरालिये अागामी बन्ध भी नहीं होता । केवल निर्जरा ही हुई ।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें द्रव्यनिर्जराका स्वरूप बताया गया था । अब इस गाथामें द्रव्यनिर्जराका निमित्तभूत व कार्यभूत भावनिर्जराका स्वरूप कहा है ।
तथ्यप्रकाश - (१) परद्रव्य का उपभोग होनेपर साता या असातारूप वेदन होता है । (२) साता असाताके वेदनके समय उसमें रागभाव (व्यामोह) होनेसे उपभोग बन्धका निमित्त होता है । (३) उदय भी निर्जरा है इस निर्जराके होते हुए भी रागादिभाव होनेसे अज्ञानीके कर्मबन्ध होता है, अतः वह निर्जरा नहीं है। (४) सातोदय व असालोदयसे सुख दु:ख होने पर स्वसंबेदन बलसे उत्पन्न परमार्थ प्रानन्दकी प्रतीति रखने वाला ज्ञानी उस कर्मफलको मात्र जानता ही है, यह भावनिर्जरा है।