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निर्जराधिकार त्सेवक एव । सम्यग्दृष्टेभवति नियतं ज्ञानवैराग्यशक्तिः स्वं वस्तुत्वं कलयितुमय स्थान्यरूपाप्तिमुक्त्या । यस्माद् ज्ञात्वा व्यतिकरमिदं तत्वतः स्वं परं च स्वस्मिन्नास्ते विरमति परात्सर्वतो रागयोगात् ।।१३६।। ।। १६७ ।। अन्य पुरुष एक० । असेवमाणो असेवमान:-प्रथमा एक । वि अपि-अव्यय । सेवगो सेवक:-प्रथमा एक । कोई कश्चित्-अव्यय अन्त:-प्रथमा एकवचन । पगरणचेट्टा प्रकरणचेष्टा-प्र० एक० । कस्स कस्य-षष्ठी एकवि अपि-अव्यय। णन-अव्यय । वि अपि-अव्यया पायरणो प्राकरण:-प्रथमा एक हत्ति इतिअव्यय । सो सः-प्रथमा एक० । होई भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया ।। १९७ ॥ उसके हानि-लाभका जिम्मेदार नहीं है । ऐसे ही सम्यग्दृष्टिको कर्मविपाकवश सुख दुःख भोगना पड़ता, पर उसका स्वामी न बननेसे भोगका फल संसारबन्धन उसके नहीं होता।
अब इसी प्रर्थके समर्थन में कलशरूप काव्य कहते हैं---सभ्य इत्यादि । अर्थ—सम्यदृष्टिके नियमसे ज्ञान और वैराग्यकी शक्ति होती है। क्योंकि यह सम्यग्दृष्टि अपने स्वरूपका ग्रहण और परके त्यागकी विधिसे अपना वस्तुत्व उपयोगमें रखने के लिये भिन्न-भिन्न स्व व परको परमार्थ से जानकर अपने स्वरूपमें ठहरता है और पररूप समस्त रागयोगसे विराम लेता है । महा यह अद्भुत रौति ज्ञान वैराग्यकी शक्तिके बिना नहीं होती।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि वैराग्यका ऐसा सामथ्र्य है कि ज्ञानी विषयोंको उपभोगता हुअा भी प्रतिभावके कारण कर्मसे नहीं बँधता है । अब इसी तथ्यका विधिनिषेधरूपसे समर्थन इस गाथामें किया गया है।
तथ्यप्रकाश-(१) तत्त्वज्ञानी चारित्रमोहोदय विपाकवश विषयोंको सेवता हुया भी उसका स्वामी न बननेसे सेवक नहीं है । (२) अज्ञानी जीव विषयसाधन न मिलनेपर विषयों को न सेवता हुया भी रामादिसद्भावके कारण सेवक है । (३) ज्ञानी विषयसेवनका व विषयसेवनफलका अपनेको स्वामो न माननेसे वह प्राकरणिक नहीं है । (४) अज्ञानी जीव बिषयसेवनका व विषयसेवनफलका प्रपनेको स्वामी माननेसे प्राकरणिक है । (५) प्राकरणिक जीव कर्मसे बँधता है । (६) अप्राकरणिक जीव कर्मसे नहीं बंधता ।
सिद्धान्त-(१) अविकार सहज ज्ञानमय स्वका संवेदन करने वाला ज्ञानी ज्ञानरस का स्वाद लेनेसे प्रबन्धक है । (२) अपनेको विकारस्वरूप समझने वाला अज्ञानी कमरसका स्वाद माननेसे बन्धक है।
दृष्टि-१- ज्ञाननय (१६४) । २- कर्तृनय (१८९)। प्रयोग--अपनेको सहज प्रानन्दमय अनुभबनेके लिये उपयोगमें प्रतिफलित कर्मरस