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समयसार
सम्यग्दृष्टिः सामान्येन स्वपरावेवं तावज्जानाति -
उदयविवागो विविहो कम्मागां वा जिणवरेहिं । दु ते मम सहावा जाणगभावो दु अहमिक्को ॥१६८॥ उदयविपाक विधि है, कर्मोंके श्री मुनीश दर्शाये ।
वे हि स्वभाव मेरे, मैं तो हूँ एक ज्ञायक सत् ॥१६८॥
उदयविपाको विविधः कर्मणां वणितो जिनवरैः । न तु ते मम स्वभावः ज्ञायकभावस्त्वमेकः ॥ १६८ ॥ ये कर्मोदयविपाकप्रभवा विविधा भावा न ते मम स्वभावाः । एप टंकोत्कोकज्ञाय
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नामसंज्ञ उदयविवाग, विविह, कम्म, वणिज, जिनवर, ण, दु, त, अम्ह सहाय जाणगभाव, दु, अम्ह, इक्क | धातुसंज्ञ -वष्ण वर्णने । प्रातिपदिक- उदयविपाक, विविध, कर्मन् वणित, जिनवर, न, तु, अस्मद् स्वभाव, ज्ञायकभाव, तु अस्मद, एक मूलधातु - वि पचप पाके, वर्ण वर्णने पदविवरण -उदविवागो उदयविपाकः - प्रथमा एकवचन । कम्माण कर्मणाम् षष्ठी बहु० । वणिओं वर्णितः प्र० एक० । उपयोग हटाकर निज सहज ज्ञानस्वरूपमें उपयोग करनेका पोरुष करना ।। १६७ ॥
अब कहते हैं कि सम्यग्दृष्टि वास्तव में सामान्यसे अपनेको श्रौर परको ऐसा जानता है: - [ कर्मणां ] कर्मीका [ उदयविपाकः ] उदयविपाक [जिनवर ] जिनेश्वर देवोंने [ विविधः ] अनेक तरहका [रिणतः ] कहा है [ते] वे [ मम स्वभावाः ] मेरे स्वभाव [ न तु ] नहीं हैं [तु श्रहं ] किन्तु मैं [ एक: ] एक [ ज्ञायकभावः ] मात्र ज्ञायकस्वभावस्वरूप हूं ।
तात्पर्य - कर्मोदयविपाकज भाव मेरे स्वभाव नहीं, मैं तो सहज ज्ञानस्वभावमात्र हूं ज्ञानो ऐसा जानता है ।
टीकार्थ- जो कर्मके उदय के विपाकसे उत्पन्न हुए स्वभाव नहीं है । मैं तो यह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर टंकोटकी प्रसंगविवरण - अनन्तरपूर्व गाथा में बताया गया स्वामी न माननेसे प्राकरणिक नहीं है । अब इस गाथा में कि वह कौनसा ज्ञान है जिससे कि ज्ञानी परभावका स्वामी तथ्य प्रकाश. जीव में नाना प्रकारके विभाव कर्मोदयविपाकसे उत्पन्न होते हैं । २- कर्मोदयवि नाव आत्मा पाव नहीं है । ३ श्रात्मा तो वस्तुतः एक ज्ञायक मात्र है । ४ - ज्ञानी स्वभाव व परभावमें स्पष्ट भेद समझता है | सिद्धान्त - १ - रागद्वेषादिविभाव कर्मविपाकोदयका निमित्त पाकर ही होते हैं ।
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२- परभाव मेरे स्वभाव नहीं है । ३- मैं तो एक प्रखंड चिद्रूप हूं ।
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अनेक प्रकारके भाव हैं वे मेरे एक ज्ञायकभावस्वभाव हूँ। था कि ज्ञानी परभावका अपनेको उसीके सम्बन्ध में यह बतलाया है नहीं बनता है ।