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निर्जराधिकार कभावस्वभावोऽहं ॥१६८।। जिणवरेहि जिनवर:-तृतीया बहु० । न, तु, मझ मम-षष्ठी एका० ! सहावा स्वभावा:-प्रथमा बहु० । जाणगभावो ज्ञायक्रभाव:-प्र० ए० । तु-अव्यय । अहं-प्र० ए० । इबको एक:-प्रथमा एकवचन ।। १६८॥
दृष्टि -- १-उपाधिसापेक्ष प्रशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४) । २-परद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथि. कनय (२६) । ३- प्रखण्ड परमशुद्धनिश्चयनय (४४) ।
प्रयोग—कर्मोदयविपाप्रभव रागद्वेषादि विभावोंको परभाव जानकर उनसे उपेक्षा करके निरपेक्ष सहज ज्ञायकस्वभाव स्वमें स्वतत्त्वकी दृष्टि बनाये रखनेका पौरुष करना ।।१६८।।
अब कहते हैं कि सम्याटष्टि अपने को पीर परको विशेषरूपसे इस प्रकार जानता है[रागः] राग [पुद्गलकर्म] पुद्गलकर्म है [तस्थ] उसका [विपाकोवयः] विपाकोदय एष] यह [भवति ] है सो [एषः] यह [मम भावः] मेरा भाव [न] नहीं है, क्योंकि [खलु] निश्चयसे [ग्रहं तु] मैं तो [एकः] एक [ज्ञायकभावः] ज्ञार्यकभावस्वरूप हूं।
तात्पर्य—राग प्रकृतिके 'उदयका प्रतिफलन यह विभाव राम है वह मेरा स्वभाव नहीं है ।
__टोकार्थ- वास्तव में रागनामक पुद्गलकर्म है, उस पुद्गलकर्मके उदयके विपाकसे उत्पन्न यह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर रागरूप भाव है यह मेरा स्वभाव नहीं है, मैं तो टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावस्वरूप हूं। इसी प्रकार राग इस पदके परिवर्तन द्वारा द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन, स्पर्शन ये सोलह सूत्र व्याख्यान किये जाना चाहिये और इसी रीति से अन्य भी विचार किये जाने चाहिये । इस तरह सम्यग्दृष्टि अपनेको जानता हुमा और रागको छोड़ता हा नियमसे ज्ञान व वैराग्यसे सम्पन्न होता है ! भावार्थ-जैसे सामने स्थित बालकका प्रतिबिम्ब दर्पणमें पड़े तो वह दर्पण में प्राया फोटो दागका स्वभाव नहीं, इसी प्रकार रागादिप्रकृति के विपाकोदयका प्रतिफलन उपयोगमें आया है सो वह जीवका स्वभाव नहीं है।
प्रसंगविवरण-अनंतरपूर्व गाथामें सामान्यतया यह बताया गया था कि सम्यग्दृष्टि स्व व परको किस तरह जानता है। अब इस गाथामें बताया है कि उसी स्व-परको विशेषतया ज्ञानी कैसा जानता है ।
तथ्यप्रकाश--१- राग आदि नामको पुद्गलकर्मप्रकृतियाँ हैं, उनके उदयसे जीव में राग आदि भाष प्रतिफलित होते हैं । २- रागादिप्रकृति के उदयसे जीवमें रागादिभाव होते हैं। ३- रागादिभाव प्रात्मा के स्वभाब नहीं हैं, अयोंकि वे प्रोपाधिक भाव हैं ! ४- प्रात्माका