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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ६५३ ज्ञानरूपमेकमेवाचलितमवलंबमानी शेयरूपेणोपाधित या सर्वत एव प्रधावत्स्वपि परद्रव्येषु सर्वेध्वपि मनागपि मा विहार्षीः ।। एको मोक्षपथो य एष नियतो दृग्ज्ञप्तिवृत्तात्मकस्तत्रैव स्थितिमेति यस्तमनिशं ध्यायेच्च तं चेतति ! तस्मिन्नेव निरंतर बितर ति द्रव्यांतराण्यस्पृशन् सोऽत्रश्यं जित, ध्यं चिन्तायां, चिती संज्ञाने, वि हा हरणे । पदविवरण-मोवखपहे मोक्षपथे-सप्तमी एकवचन । अप्पाणं आत्मानं-द्वितीया एक०। ठवेहि स्थापय आज्ञार्थं लोट् मध्यम पुरुष एकवचन णिजन्त क्रिया । तं-द्वि० ए० । झाहि ध्यायस्व-आज्ञार्थे लोट् मध्यम पुरुष एकवचन क्रिया । तं-द्वि० ए० । का अनुभव करता है। भावार्थ----निश्चयमोक्षमार्गके सेवनसे अल्पकालमें हो मोक्षको प्राप्ति होती है यह नियम है। ___ अब कहते हैं कि जो द्रव्यलिंगको ही मोक्षमार्ग मानकर उसमें ममत्व रखते हैं वे मोक्षको नहीं पाते उसकी सूचनाका काव्य है-ये त्वेनं इत्यादि । अर्थ-जो पुरुष इस पूर्वोक्त परमार्थस्वरूप मोक्षमार्गको छोड़कर व्यवहारमार्गमें स्थापित अपने आपसे द्रव्यमयलिङ्गीमें याने बाह्य भेषमें हो ममता करते हैं, अर्थात् यह जानते हैं कि यही हमको मोक्ष प्राप्त करायगा वे पुरुष तत्वके यथार्थज्ञानसे रहित होते हुए नित्य उदित प्रखंड अतुलप्रकाशा वाले स्वभावको प्रभाके पुज, अमल समयसारको प्राप्त नहीं कर सकते भावार्थ--जिनको द्रव्यलिङ्ग में ममता है वे अब तक भी समयसारको नहीं पा सके। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें दर्शनज्ञानचारित्रमें प्रात्माको लगानेकी प्रेरणा दी गई थी। अब इस माथामें और विस्तारसे उसोका समर्थन किया है । तथ्यप्रकाश-१- रागद्वेषादि विकार कार्मारण द्रव्यके अनुभाग होनेसे परद्रव्य हैं । २- रागद्वेषादि कर्मानुभागों में यह जीव अपने प्रज्ञादोषसे अनादिसे ठहरता चला पाया है । ३-अपने स्वरूपको सुध रूप प्रज्ञागुरासे यह प्रात्मा रागद्वेषादिसे हट सकता है । ४-रागद्वेषादि विकारसे हटकर ही यह प्रात्मा अपने पापको अपने दर्शनज्ञान चारित्रमें स्थित कर सकता है । ५-ज्ञानी पुरुष अन्यत्र चित्त न देकर एकाग्रतासे दर्शन ज्ञान चारित्रस्वरूपका ही ध्यान करता है । ६-ज्ञानी पुरुष समस्त कर्मचेतना व कर्मफलचेतनाके परिहारसे शुद्धज्ञान चेतनामय हुपा है सो वह दर्शन ज्ञान चारित्रस्वरूपको ही चेलता रहता है । ७-प्रात्माका नाम ब्रह्म है जिसका संकेत है कि प्रात्मा गुस्गोंके द्वारा बढ़ता रहता है स्वगुणवू लाति इति ब्रह्म । ८- अपने ब्रह्मस्वभाववशसे प्रतिक्षण गुणोमें बढ़-बढ़कर उन परिणामोंमें तन्मय होकर ज्ञानी दर्शनज्ञानारित्रस्वरूप में ही विहार करता है अर्थात् उपयोग रमाये रहता है । ६-- ज्ञानस्वरूप एक प्रचल प्रात्मतत्वमें उपयोग रखने वाला शानी यद्यपि शेयरूपसे सब पोरसे परद्रव्य
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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