SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 705
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६५४ समयसार समयस्य सारमचिरान्नित्योदयं विदति ॥२४०। ये त्वेनं परिहत्य संवृतिपथप्रस्थापितेनात्मना लिंगे द्रव्यमये वहन्ति ममतां तत्त्वावबोधच्युताः । नित्योद्योतमखंडमेकमतुलालोकं स्वभावप्रभाप्राग्भारं समयस्य सारममलं नाद्यापि पश्यति ते ॥२४१।। ।।४१२।। चेय चेतस्व-आज्ञार्थे लोट् मभ्यम पुरुष एक० । तत्थ तत्र एव-अव्यय । णिच्चं नित्यं-अव्यय मा-अव्यय । विहरसु विहर-आज्ञार्थे लोट् मध्यम पुरुष एक० किया । अण्णदन्वेसु अन्यद्रव्येषु-सप्तमी बहुवचन ।।४१२।। प्रात्मामें दौड़ प्राये याने झलक रहे तो भी उन सर्व परद्रव्योंमें झलकोंमें रंच भी विहार नहीं करता याने उपयोग नहीं रमाता । सिद्धान्त—१- उपाधिनिरपेक्ष शुद्धद्रव्यमें ज्ञानमात्र अन्तस्तत्त्वमें उपयोग रमाना मोक्षमार्ग है । २- द्रव्यलिङ्गको मोक्षमार्ग कहना उपचार है। दृष्टि-१- उपाधिनिरपेक्ष शुद्धद्रव्याथिकनय, शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२१, २४ब) । २- एकजात्याधारे मान्यजात्याधेयोपचारक व्यवहार (१४२) । प्रयोग-केवल ज्ञानवृत्ति बनाये रहने के लिये ज्ञानमात्र शुद्ध अन्तस्तत्त्वका प्रभेदविधि से ध्यान करना ।।४१२॥ अब उक्त गाथासंकेतको स्पष्ट कहते हैं:-[2] जो पुरुष [पाखंरिलिगेषु] पाखंडो लिंगोंमें [था] प्रथवा [बहुप्रकारेषु गृहिलिगेषु या] बहूत भेद वाले गृहस्थ लिंगोंमें [ममत्व] ममता [कुर्वति] करते हैं अर्थात् हमको ये ही मोक्षके देने वाले हैं ऐसी प्रास्था रखते हैं [तः] उन पुरुषोंने [समयसारः] समयसारको [न ज्ञातः] नहीं जाना। तात्पर्य-जो द्रव्यलिंगसे ही मुक्ति मानकर अन्तस्तस्वके पालम्बनका ध्येय छोड़ देते हैं बे समयसार परमतत्त्वसे बिल्कुल अनभिज्ञ हैं । टोकार्थ-जो पुरुष निश्चयतः मैं श्रमण हूं, अथवा श्रमणका उपासक हूं; इस तरह द्रव्यलिंगमें ममकार करके मिथ्या अहंकार करते हैं, वे अनादिसे चले आये व्यवहारमें विमूढ़ हुए प्रौढ़ विवेक वाले निश्चयनयको नहीं पाते हुए परमार्थतः सत्यार्थ भगवान ज्ञानरूप समयसारको नहीं देखते । भावार्य-जो अनादिकालीन परद्रव्यके संयोगसे व्यवहारमें मोही हैं वे ऐसा जानते हैं कि यह बाह्य महावतादिरूप भेद ही हमको मोक्ष प्राप्त करायेगा, परन्तु जिससे भेदज्ञानका जानना होता है ऐसे निश्चयनयको नहीं जानते, उनके सत्यार्थपरमात्मरूप शुद्धज्ञानमय समयसारकी प्राप्ति नहीं होती। ____ अब इसी अर्थको कलशरूप काव्यमें कहते हैं- व्यवहार इत्यादि । अर्थ-जो लोक व्यवहारमें ही मोहित बुद्धिवाले हैं वे परमार्थको नहीं जानते । जैसे लोकमें तुष (भूषा) के
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy