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________________ ४२० समयसार तैल नहीं उस नरके, इससे उसके न धूलिबन्ध हुआ। निश्चयसे यह जानो, हुआ न कुछ कायनेष्टासे ॥२४॥ यों यह सम्यग्दृष्टी, विविध भोगोंमें वर्तमान हुआ । उपयोगमें रागादि, करता न न कर्मसे बंधता ॥२४६॥ यथा पुनः स चव नरः स्नेहे सर्वस्मिन्नपनीते सति । रेणुबहुले स्थाने करोति शस्त्रयायाम ॥२४२॥ छिनत्ति भिनत्ति च तथा तालीतलकदलीवंशपिंडीः । सचित्ताचित्तानां करोति द्रव्याणामुपधात ॥२४३॥ उपधातं कुर्वतस्तस्य नानाविधैः करणः । निश्चयतश्चिन्त्यतां किंप्रत्ययको न रजोबन्धः ॥२४४॥ यः सोऽस्नेहभावस्तस्मिन्नरे तेन तस्यारजोबन्ध: । निश्चयतो विज्ञेयं न कायचेष्टाभिः शेषाभिः ॥२४॥ एवं सम्यग्दृष्टिवर्तमानो बहुविधेषु योगेषु । अकुर्वन्नुपयोगे रागादीन् न लिप्यते रजसा ॥२४६।। यथा स एव पुरुषः स्नेहे सर्वस्मिन्न पनीते सति तस्यामेव स्वभावत एव रजोबहुलायां भूमौ तदेव शस्त्रव्यायामकर्म कुर्वाणस्तैरेवानेकप्रकारकरणस्तान्येव सचित्ताचित्तवस्तूनि निघ्नन् रजसा न बध्यते स्नेहाभ्यंगस्य बंधहेतोरभावात् । तथा सम्यग्दृष्टिः प्रात्मनि रागादीनकुरिणः सन तस्मिन्नेव स्वभावत एवं कर्मयाग्यपुद्गलबहुले लोके तदेव कायवाङ्मनःकर्म कुर्वाणः, तैरे. णिच्छयदो, किंपच्चयग, ण, रयबन्ध, ज, त, अणेहभाव, त, पर, त, त, अरयबंध, णिच्छयदो, विष्णेय, ण, कायचेवा, सेसा, एवं सम्मादिठि, वट्टत, बहुविह, जोग, अकरत, उवओग, रागाइ, ण, रय । धातुसंज-कर करणे, भिंद भेदने, कुन करणे, चिन्त चिन्तने, लिप लेपने । प्रातिपदिक-यथा, पुनस्, तत्, चैव, नर, स्नेह, अपनीत, सर्व, सन्त, रेणुबहुल, स्थान, शस्त्र, व्यायाम, तथा, तालीतलकदलीवंशपिण्डी, कर्मरूप धूलसे नहीं बँधता । क्योंकि इसके बन्धका कारण रामके योगका अभाव है। भावार्थसम्यग्दृष्टि के पूर्वोक्त सब सम्बन्ध होनेपर भी प्रज्ञानमय रागका प्रभाव होनेसे कर्मबन्ध नहीं होता । अब इसी अर्थका कलश कहते हैं--लोकः कर्म इत्यादि । अर्थ-इस कारण कर्मोंसे भरा हुआ लोक हो सो भले हो रहो, मन वचय कायके चलनस्वरूप योग है सो भले ही रहो, पूर्वोक्त करण भी भले रहो और पूर्वकषित चेतन अचेतन का घात भी भले हो, परंतु अहो, यह सम्यग्दृष्टि रागादिकोंको उपयोगभूमिमें नहीं लासा हुमा केवल एक ज्ञानरूप परिणत होता हुआ पूर्वोक्त किसी भी कारणसे निश्चयतः बन्धको प्राप्त नहीं होता । भावार्थ-लोक, योग, करण, चेतन अचेतनका पात--ये बन्धके कारण नहीं बताये गये हैं सो यही ऐसा नहीं समझना कि परजीवकी हिंसासे बन्ध नहीं कहा, इसलिये स्वच्छन्द होकर हिंसा करनी । देखें. भाल कर चलने वाले सम्यग्दृष्टि जीवके पसनेमें अबुद्धिपूर्वक कभी परजीवका घात भी हो जाता है तो भी उससे बन्ध नहीं होता | किन्तु जहांपर बुद्धिपूर्वक जीव मारनेके भाव होंगे तो वहाँ
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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