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बन्धाधिकार जह पुण सो चेव णरो गोहे मब्बमि अवणिये संते । रंगुबहुलम्मि ठाणे करदि सत्थेहिं वायामं ॥२४२॥ छिददि भिंददि य तहा तालीतलकयलिवंसपिंडीयो । सच्चित्ता चित्ताणं करइ दवाणमुवघायं ॥२४३॥ उवधायं कुब्वंतस्स तस्स णाणाविहेहि करणेहिं । णिच्छयदो चिंतिजहु किंपञ्चयगो ण रयबंधो ॥२४४॥ जो सो अणेहभावो तह्मि गरे तेण तस्सऽस्यबधो । णिच्छयदो विष्णेयं ण कायचेट्टाहिं सेमाहिं ॥२४५।। एवं सम्मादिट्ठी वटतो बहुविहेसु जोगेसु । अकरंतो उवोगे रागाइ ण लिप्पइ रयेण ॥२४६॥
जैसे फिर वही पुरुष, समस्त उस तलको अलग करके। उस धूलभरी क्षितिमें, करता श्रम पूर्ण शस्त्रोंसे ॥२४२॥ ताड़ बांस कदलीको, विछेदता मेवता पुरुष धसे । करता उपघात वहां, सजीव निर्जीव द्रव्योंका ॥२४३॥ नानाविध करणोंसे, उपघात कर रहे हुए पुरुषके ।
निश्चयसे सोचो किस, कारणसे धूलिबन्ध नहीं ।। २४४।। नाममंज्ञ जह, पुण, त, चेव, णर, गेह, सब्व, अवणिय संत, रेणु बहुल, ठाण, सत्थ, वायाम, य, तहा, तालीतलकलिवमपिंडी, सच्चित्ताचित्त, दव्ब, उवधाय, उपघाय, कुब्बत, त, गाणाविह, करण, नही होता याने नहीं बंधता ।
तात्पर्य-प्रज्ञानमय रागादिके प्रभावसे सम्यादृष्टि के बन्ध नहीं होता।
टोकार्थ-जैसे वही पुरुष समस्त तैलाविकके हटा दिय जानेपर स्वभावसे ही बहुत रज वाली भूमिपर उन्हीं शस्त्रोंसे अभ्यास करता हुआ, उन्हीं अनेक तरहके करणोंसे उन्हों सचित्त अचित्त बस्तुनोंको घातता हा धूलिसे लिप्त नहीं होता, क्योंकि इसके बन्धका हेतुभूत चिकनाईके लेपका अभाव है उसी तरह सम्यग्दृष्टि प्रारमा प्रात्मामें रागादिकको नहीं करता हमा स्वभावसे ही कर्मयोग्य पुद्गलोंसे भरे उसी लोकमें उसी काय वचन मनको क्रियाको करता हुपा उन्हीं अनेक प्रकारके करणोसे उन्हीं सचित प्रचित्त वस्तुओं का घात करता हुमा