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________________ ४२६ सपयसार कर्म वा, न नैककरणानि वा न चिचिद्धो बंधकृत् । यदैक्यमुपयोगभू समुपयाति रागादिभिः स एव किल केवलं भवति बन्धहेतु गगां ।। १२४।। ।। २३७-२४१ ।। विणेयं विज्ञय-प्र० ए० । ण न-अव्यय । कायचेट्टाहि कायचेष्टाभिः-तृ. बहु० । मेसाहि प्रषाभिः-तृतीया बहु । एवं-अव्यय । मिच्छादिट्ठी मिथ्याष्टि:-प्र० ए० | वट्टन्तो वर्तमानः-प्र० ए० । बहुविहास बहुविधासु-सप्तमी बहु० । चिट्ठासु चेष्टासु-सप्तमी बहु० । गयादी रागादोन्-द्वितीया बहु । उवओगे उपयोगे-सप्तमी एक० । कुबतो कुर्वाण:-प्र० ए० । लिप्पड़ लिप्यते-वतंमान लट् अन्य पुरुष एकवचन भावकर्मवाच्यप्रक्रिया क्रिया । रयेण रजसा-तृतीया एकवचन ।। २३७-२४१ ।। बन्ध नहीं है, क्योंकि समितिसे चलते हुए साधुके पदतलसे किसी कुन्य जीवका उपधात होने पर भी साधुके बन्ध नहीं है । (५) बन्ध तो मात्र उपयोग में गादिके करनेसे है । ___सिद्धान्त - (१). परद्रव्यके किसी भी प्रकारके परिणासनसे जीवका परिणाम नहीं होता । (२) कर्मविपाकको प्रात्मीय माननेके f कल्पका निमित पाकर कार्माग्ग यगरणामोंका कर्मत्व परिणमनहर बन्ध होता है । दृष्टि- - परद्रव्पादिग्राहक द्रध्याथिकनय (२६)। २- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४) । प्रयोग- उपयोगमें रागादिके करनेको हो विपत्तिका मुल जानकर रागादि परभावसे उपयोग हटाकर सहज ज्ञानानन्द स्वभावमें उपयोग लगाना ।। • ३७-२४१ ॥ अब कहते हैं कि सम्यग्दृष्टिके बन्ध क्यों नहीं होता ?---[यथा] जैसे पुन: स चव] फिर वही [नरः] मनुष्य [सर्वस्मिन् स्नेहे अपनीते] समस्त तैलादिक हटा दिये जानेपर [रेणुबहुले] बहुत धूलि वाले [स्याने] स्थानमे [शस्त्रः व्यायाम करोति] शस्त्रोंके द्वारा व्यायाम करता है, [तालोललकदलोवंशपिण्डीः] ताड़. तमाल, केला, बांस आदिके वृक्षको [छिनतिन भिनत्ति] छेदता है और भेदता है [तथा] पोर [सचित्ताचित्तानां] सचित्त अचित्त [द्रच्यारणां] द्रव्योंका [उपघातं करोति] उपधात करता है । [नानाविधैः करणः] नाना प्रकारके करणोंसे [उपघातं कुर्वतः तस्य] उपघात करने वाले उसके [निश्चयतः] निश्चयसे [चिन्त्यता] विचारिये कि [रजोबंधः] धूलिका बन्ध [किप्रत्ययकः न] किस कारणसे नही होता [तस्मिन् नरे] उस पुरुषके [यः] जो [स प्रस्नेहभावः] वह अचिक्कणता है [तेन] उससे [तस्य] उसके [अरजोबंधः] धूलिका प्रबंध है [निश्चयतः] निश्चयसे [विज्ञेयं] यह जानना चाहिये [शेषाभिः कायचेष्टाभिः] शेष कायकी चेष्टाम्रोसे [न] नहीं [एवं] इस प्रकार [सम्यग्दृष्टिः] सम्पाद [बहुविधेषु] बहुत प्रकारके [योगेषु] योगोमें [वर्तमानः] वर्तता हुअा [उपयोगे] उपयोगमें [रागादीन रागादिकोंको [अकुर्वन नहीं करता हुया [रजसा कर्म रजसे [न लिप्यते] लिक्ष
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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