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________________ बन्धाधिकार ४२५ केवलज्ञानिनामपि तत्प्रसङ्गात् । न सचित्ताचित्तवस्तूपघातः समितितत्पराणामपि तत्प्रसङ्गात् । ततो न्यायबलेनैतदेवायातं यदुपयोगे रागादिकरणं स बंधहेतुः ।। न कर्मबहुलं जगन्न घलनात्मक लट् अन्य पुरुष एका० क्रिया । सत्येहि शस्त्र:-तृतीया बहु० । वायाम व्यायाम-द्वितीया एक । छिदि छिनत्ति, भिंददि भिनत्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । तहा तथा-अव्यय । तालीतलक्रयलिवंसपिडीओ तालीतलकदलीवंशपिण्डी:-द्वितीया बहु० । सच्चित्ताचित्ताण सचित्ताचित्तानां-षष्ठी बहु० । करेइ करोति, दवाणं द्रव्याणां-षष्ठी बहु० । उवधायं उपघात-द्वि० ए० । कुब्बतस्स कुर्वतः--षष्टी एक० । तस्स तस्य-षष्ठी एकवचन । णाणाविहेहि नानाविधः तृतीया बहु । णिच्छयदो निश्चयत:-पंचम्यर्थं अव्यय । किपच्चयमो काययक:-पना एकवन, पुसू-अध्यय रबंधो रजोबन्धः-प्रथमा एक० । जो य:प्रथमा एकवचन । गेहभावो स्नेहभावः तम्हि तस्मिन्-सप्तमी एक० । परे नरे-सप्तमी एक० । तेण तेनतृतीया एक० । तस्स तस्य--षष्ठी एक० । रयबंधो रजोबन्धः-प्र० एक० । णिच्छयदो निश्चयत:-अव्यय । ही बन्धके कारण हैं । परन्तु अन्य जो कर्मयोग्य पुद्गलोंसे भरा लोक, मन बचन कायके योग, अनेक करण और वेतन अचेतनका घात प्रादि हैं ये बंधके कारण नहीं हैं । बयोंकि यदि इनसे बन्ध हो तो सिद्धोंके, यथाख्यातचारित्र वालोंके, केवलज्ञानियोंके तथा समितितत्तर मुनियोंके बन्धका प्रसङ्ग आ जायगा; लेकिन उनके बन्ध नहीं होता । प्रतः बन्धका कारण रागादिक ही हैं यह निश्चय रहा। अब आगे इस अर्थका समर्थक कलश कहते हैं-न कर्म इत्यादि । अर्थ-कर्मबन्धका कारण न तो कर्मयोग्य पुद्गलोंसे बहुत भरा हुमा लोक है, न चलनस्वरूप कर्म याने काय वचन मनकी क्रियारूप योग है, न अनेक प्रकारके करण हैं और न चेतन अचेतनका घात है । किन्तु, उपयोगभूमि याने जीव जो रागादि भावोंके साथ एकताको प्राप्त होता है वही एकमात्र पुरुषोंके बन्धका कारण है । भावार्थ---निश्चयसे मिथ्यात्व रागादिक हो बन्धका कारण है । प्रसंगविबरण--अनन्तरपूर्व गाया तक "भूयत्थेणाभिगया जीवाजीवा य" इत्यादि भधिकारगाथाके अनुसार जीव, अजीव, पुण्य-पापादि सात पदार्थोंकी पीठिकारूप कर्तृ कर्माधिकार, आस्रव, सम्बर, निर्जरा तत्वका वर्णन किया गया था। अब क्रमप्राप्त बन्ध अधिकार प्राया सो उसमें सर्वप्रथम बन्धके सही कारणका विचार इन पांच गाथावोंमें किया गया है । तथ्यप्रकाश-(१) विस्रसोपचयरूप काणिवर्गरणावोंसे भरे लोकमें रहनेके कारण जीवके वन्ध नहीं होसा, क्योंकि ऐसे लोकमें रहने वाले सिद्धोंके बन्ध नहीं है । (.) मन, वचन, कायकी चेष्टासे जीवके बन्ध नहीं होता, क्योंकि यथाख्यात संयमी ११, १२, १३वें गुणस्थानवर्ती जीवोके चेष्टा होकर भी बन्ध नहीं है । (३) अनेक प्रकारके बाह्य संगसे भी जीवके बन्ध नहीं होता, क्योंकि समवशरण, गन्धकुटी, छत्र, चमर, सिंहासन आदि शोभाके बीच भी केवलज्ञानीके बन्ध नहीं है। (४) सचित्त अचित्त वस्तुके उपघातसे भी जीदके
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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