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________________ समयसार एवं मिथ्यावृष्टिरात्मनि रागादीन् कुर्वाणः स्वभावत एव कर्मयोग्यपुद्गलबहुले लोके कायवाङ्मनःकर्म कुर्वाणोऽनेकप्रकारकरणः सचित्ताचित्तवस्तूनि निघ्नन् कमरजसा बध्यते । तस्य कतमो बन्धहेतुः ? न तावतत्स्वभावत्त एव कर्मयोग्यपुद्गलबहुलो लोकः, सिद्धानामपि तत्रस्थानां तत्प्रसंगात् । न कायवाङ्मनःकर्म, यथाख्यातसंयतानामपि तत्प्रसंगात् । नानेकप्रकारकरणानि, गतिनिवृत्तौ, डुकृञ् करणे, छिदिर छेदने, भिदि भेदने, चिति स्मृत्यां, लिप उपदेहे तुदादि । पदविवरणजह यथाअव्यय । णाम नाम-प्रथमा एक० । को क:-प्रथमा एक० । वि अपि-अव्यय । पुरिसो पुरुषःप्र०ए। भत्तो स्नेहाभ्यक्तः-प्रथमा एक । दु लु-अव्यय । रेणुवहुलम्हि रेणुवहुले-सप्तमी एकः । ठाणे स्थाने सप्तमी एक० । ठाइदूण स्थित्वा असमाप्तिकी क्रिया । ये च-अव्यय । करेइ करोति-वर्तमान अनेक प्रकारके करण भी उस रजके बंधनका कारण नहीं है, क्योंकि यदि ऐसा हो तो जिनके तैल आदि नहीं लगा, उनके भी उन करणों द्वारा रजका बन्ध हो जानेका प्रसङ्ग हो जायगा। तथा सचित्त अचित्त बस्तुओंका उपघात भी उस रजके लगनेका कारण नहीं है, क्योंकि यदि ऐसा हो तो जिनके तैल आदि नहीं लगा उनके भी सचित्त अचित्तका घात करने से रजका बन्ध हो जानेका प्रसङ्ग आ जायगा । इसलिये न्यायके बलसे यह ही सिद्ध हुमा कि उस पुरुषमें जो तल आदिका मर्दन है वही बन्धका कारण है । ऐसे ही मिथ्यादृष्टि जीव अपने आत्मामें राम आदि भावोंको करता हुआ स्वभावसे ही कर्मके योग्य पुद्गलोंसे भरे हुए लोकमें काय वचन मनको क्रियाको करता हुमा अनेक प्रकारके करणों द्वारा सचित्त अचित्त वस्तुओं का घात करता हुया कर्मरूपी धूलिसे बंधता है। वहाँ विचारिये कि बन्धका कारण कौन है ? वहाँ प्रथम तो यही देखिये कि स्वभावसे ही कर्मयोग्य पुद्गलोंसे भरा हुआ लोक बन्धका कारण नहीं है, यदि उनसे बन्ध हो तो लोकमें सिद्धोंके भी बन्धका प्रसङ्ग प्रायेगा। काय वचन मनकी क्रियास्वरूप योग भी बन्धके कारण नहीं हैं, यदि उनसे बन्ध हो तो मन, वचन, कायकी क्रिया वाले यथाख्यातसंयमियोंके भो बन्धका प्रसङ्ग हो जायगा । अनेक प्रकारके करण भी बन्धके कारण नहीं हैं, यदि उनसे बन्ध हो तो केवलज्ञानियोंके भी बन्धका प्रसङ्ग हो जायगर । तथा सचित्त अचित्त वस्तुओं का उपघात भी बन्धका कारण नहीं है, यदि उनसे बंध हो तो समितिमें तत्पर याने यत्नरूप प्रवृत्ति करने वाले साधुवोंके भी सचित्त अचित्त वस्तु के घातसे बन्धका प्रसङ्ग हो जायगा । इस कारण न्यायके बलसे यही सिद्ध हुआ कि जो उपयोगमें रागादिका करना है वह बन्धका कारण है । भावार्थ-यही निश्चयनयको मुख्य दृष्टि से बन्ध होनेके कारणपर विचार किया गया है ! बन्धका यथार्थ कारण विचारनेसे यही सिद्ध हुना कि मिथ्यादृष्टि पुरुष राग, द्वेष, मोह भावोंको अपने उपयोग करता है सो ये रागादिक
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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