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________________ बन्धाधिकार ४२६ वानेकप्रकारकरणः, तान्येव सचित्ताचित्तवस्तूनि निघ्नन् कर्मरजसा न बध्यते रागयोगस्य बन्धहेतोरभावात् ।। लोकः कर्म ततोऽस्तु सोऽस्तु च परिस्पन्दात्मकं कर्म तत्, तान्यस्मिन् करणानि संतु चिदचिद्व्यापादानं चास्तु तत् । रागादीनुपयोगभूमिमनयन् ज्ञानं भवन केवलं, बन्धं नैव कुतोप्युपेत्ययमहो सम्यग्दृगात्मा ध्र वम् ॥१६५।। तथापि न निरर्गलं चरितुभिष्यते ज्ञानिनां तदासचित्ताचित्त, द्रव्य, उपयात, कुर्वन्त, तत्, नानाविध, करण, निश्चयतः, किंप्रत्ययकः, न, रजोबंध, यत्, तत्, अस्नेहभाव, तत्, नर, तत्, अरजोबन्ध, निश्चयतः, विशंय, , कायसः शेषा, एवं, सम्यग्दृष्टि, वर्तमान, बहुविध, योग, अकुर्वन्त, उपयोग, रागादि, न, रजस् । मूलधातु - डुकृत्र करणे, छिदिर छेदने, अपने उपयोगमें रागादिकका सद्भाव होनेसे बन्ध होगा ही। बन्धसे बचनेके लिये ज्ञान व दराग्य चाहिये, फिर लोक, योग प्रादि कुछ भी हो तो भी बन्ध नहीं होता। अध्यात्मकयनमें बुद्धिपूर्वक पौरुष, बन्ध प्रादिका वर्णन होता सो अबुद्धिपूर्वक होने वाला बन्ध यहाँ विवक्षित नहीं है । अब इसी सम्बन्धमें व्यवहारनयको प्रवृत्ति करनेके लिए काव्य कहते है-तथापि इत्यादि । अर्थ-यद्यपि लोक आदि कारणोंसे बन्ध नहीं कहा और रागादिकसे हो बन्ध कहा है तथापि ज्ञानियों को स्वच्छन्द प्रवर्तना योग्य नहीं, क्योंकि निरगल (स्वच्छन्द) प्रवर्तना हो वास्तवमें बन्धका स्थान है । ज्ञानियों के बिना वांछाके कार्य होता है वह बन्धका कारण नहीं, क्योंकि जानाति व करोति ये दोनों क्रियायें क्या निश्चयसे विरुद्ध नहीं हैं ? विरुद्ध हैं। भावार्थ---बाह्य व्यवहार प्रवृत्ति करना बन्धके कारणों में सर्वथा प्रतिषिद्ध है । ज्ञानियोंकी जो अबुद्धिपूर्वक प्रवृत्ति होती है वहाँ बन्ध नहीं कहा । इसलिए ज्ञानियों को स्वच्छन्द प्रवर्तना तो कहा ही नहीं है, निरर्गल प्रवर्तना तो बन्धका ही कारण है। जानने और करने में परस्पर विरोध है । जीव ज्ञाता रहे तब तो बन्ध नहीं, यदि कर्ता बने तो अवश्य बन्ध है । ___अब जानने और कहनेके परस्पर विरोधको बतानेके लिये काव्य कहते हैं--जानाति इत्यादि । अर्थ-जो जानता है वह करता नहीं है और जो करता है वह जानता नहीं है। करना तो निश्चयसे कर्मराग है और रागको प्रज्ञानमय अध्यवसाय कहते हैं जो कि मिथ्यादृष्टि के नियमसे होता है, यही अध्यवसाय नियमसे बन्धका कारण है। प्रसंगविवरण---अनन्तरपूर्व ५ गाथावोंमें बन्धका सही कारण बताया गया था । प्रच इन ५ गाथावोंमें बन्ध न होनेका कारण बताया गया है। तथ्यप्रकाश-(१) उपयोगमें रागादिकको न करते हुए ज्ञानीके कर्मयोग्यपुद्गलव्याप्त लोकमें रहनेपर भी कर्मबन्ध नहीं होता। (२) उपयोगमें रागादिकको न करते हुए ज्ञानोके
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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