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समयसार यतनमेव मा किल निरर्गला व्यापृत्तिः । अकामकृतकर्म तन्मतमकार जानिनो द्वयं न हि विरु ध्यते किमु करोति जानाति च ।।१६६॥ जानाति यः स न करोति करोति यन्तु, जानात्ययं न खलु तस्किल कर्मरागः । रागं त्वबोधमयमध्यवसायमाहुमिच्यादृशः स नियतं स हि बन्धहेतुः ।।१६७।। ।। २४२२४६ ।। भिदिर भेदने, विति ममत्या, लिप उपदेहे। पदविवरण नोट.. इन पांच गाथावोंके प्रायः सभी शब्द पूर्व की पांच गाथावों में है मो उनकी तरह पदविवरण समझ लेखें । मन, वचन, कायकी चेष्टा होनेपर भी कर्मबन्ध नहीं होता। (4) उपयोगमें रागादिकको न करते हुए जानीके अनेक बासंग होनेपर भी कर्मबन्ध नहीं होता। (४) उपयोगमें रागादिक को न करते हुए ज्ञानीके मचित्ताचित्त बस्तुका उपघात होनेपर भी कर्मबन्ध नहीं होता ।
सिद्धान्त – (१) परभावविविक्त शुद्ध ज्ञानमात्र सहजात्मतत्त्वको भावनाका निमित्त पाकर कारणवर्गणावोंमें कर्मत्व नहीं पाता।
दृष्टि - १- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४ ब)।
प्रयोग-कर्मानुभागमें उपयोग न लगाकर सहज चिन्मात्र अन्तस्तत्त्वमें उपयोग रखना ।। २४५.२४६ ।।
__ अब मिथ्याष्टिके प्राशयको बताते हैं--[य:] जो पुरुष [मन्यते] ऐसा मानता है कि [हिनस्मि] मैं पर जीवोंको मारता हूं [च] और [परः सत्त्वैः। परजीवोंके द्वारा में [हिंस्ये] मारा जाता हूं [सः] वह पुरुष [सूढः] मोही है [अज्ञानी] अज्ञानी है [तु अतः] और इससे [विपरीतः] विपरीत अाशाय वाला यथार्थ मानने वाला [ज्ञानी] ज्ञानी है।।
तात्पर्य-परके द्वारा अन्य परका घात किया जानेको मान्यता होना निश्चयदृष्टि से मिथ्या भाव है।
टीकार्य---मैं परजीवों को मारता हूं और परजीवोंके द्वारा मैं मारा जा रहा हूं, यह प्राशय निश्चित अजान है और जिसके ऐसा अज्ञान है, जिसके ऐमा अध्यवसाय है वह प्रजानी पन होनेके कारण मिथ्या दृष्टि है। और जिसके ऐसा प्राशयरूप अज्ञान नहीं है वह ज्ञानदीपन होनेके कारण सम्यग्दृष्टि है । भावार्थ-निश्चयनयसे कर्ताका स्वरूप यह है कि स्वयंमें अकेला जिस भावरूप परिणमे उमको उस भावका कर्ता कहते हैं, परमार्थ से कोई किसीका मरण नहीं कर सकता, निमित्ततः प्रायुक्षयसे मरण होता । जो पर प्राणीके द्वारा परका मरण मानता वह अज्ञानी है । निमित्तनमित्तिक भावसे कर्मघटनाको कर्ता कहना व्यवहारनयका वचन है, पाश्रयमासे परप्राणीको कर्ता कहना उपचारवचन है, उसे उस प्रकार मानना सम्यग्ज्ञान है।