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पूर्व रंग तथाहि
सं णिच्छये | जुज्जदि ण सरीरगुणा हि होंति कवलिणो। केवलिगुणे थुणदि जो सो तच्चं कवलि थुणदि ॥२६॥
यह न सही निश्चयसे, होते तनके न केवलीमें गुरण ।
जो प्रभुके गुण कहता, वही प्रभूका स्तवन करता ॥२६॥ तनिश्चये न युज्यते न शरीरगुणा हि भवंति केवलिनः । केबलिगुणान् स्तौति यः स तत्त्व केवलिन स्तौति ।
___ यथा कार्तस्वरस्य कलधौतगुणस्य पाडुरत्वस्याभावान्न निश्चयतस्तन्यपदेशेन व्यपदेश। कार्तस्वरगुरणस्य व्यपदेशेनैव कार्तस्वरस्य व्यपदेशात, तथा तीर्थकरकेवलिपुरुषस्य शरीरगुणस्य शुक्ललोहितत्वादेरभावान्न निश्चयतस्तत्स्तवनेन स्तवनं, तीर्थङ्करकेवलिपुरुषगुणस्य सवनेनैव तीर्थङ्करकेवलिपुरुषगुणस्य स्तवनात ||२६॥
नामसंज्ञ--त, णिच्छय, ण, ण, सरीरगुण, हि. केवलि, कवलिगुण ज, त, तच्च, केवलि । धातुसंज्ञ-जुज योगे, हो सत्तायां, स्थूण स्तुतौ। प्रकृतिशब्द-तत्, निश्चय. न, न, शरीरगुण, हि, केबलिन, केवलिगुण, यत, तत् तत्व, कबलिन् । मूलधातु----युजिर योगे रुधादि, टुज स्तुतौ, भू सत्ताय
त्तायां । पवविवरण-सत्-प्रथमा एकः । निश्चये-सप्तमी एक० । न-अव्यय । युज्यते-वर्तमान लट् कर्मवाच्य अन्य पुरुष एक० । न-अव्यय। शरीरगुणा:-प्रथमा ब्रहु । हि-अव्यय । भवंति--वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु । केवलिनः-पष्ठी एक० । केवलिगुणान्--द्वितीया बहु । स्तौति--अन्य पुरुष एक० क्रिया। य:-प्रथमा एक० कर्ता । स:-प्रथमा एक कर्ता । तस्त्र--अव्यय । केवलिन--द्वि० ए० । स्तौति-अन्य पुरुष एक क्रिया ॥२६।। का नाम होता है 1 उसी तरह तीर्थंकर केवली पुरुषमें शरीरके शुक्ल रक्तता आदि गुणोंका प्रभाव होनेसे निश्चयतः शरीरके गणोके स्तवन करनेसे तीर्थंकर केवली पुरुषका स्तवन नहीं होता । तीर्थंकर केवली पुरुषके गुणोंके स्तवन करनेसे ही केवलीका स्तवन होता है।
प्रसंगविवरण-प्रकरणमें यह कहा गया था कि देहके स्तवनसे प्रात्माका स्तवन अप्रतिबुद्ध मानता है, क्योंकि वह नयविभागको नहीं जानता । उसमें से व्यवहारनयका विभाग तो अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था । अब निश्चयनयका विभाग बता रहे हैं ।
तथ्यप्रकाश---(१) निश्चयसे देहके गुणोंके स्तवनसे तीर्थकर केवली प्रभुके गुणोंका स्तवन नहीं बनता, क्योंकि देहके गुण तीर्थङ्कर केवली प्रभुमें नहीं हैं । (२) तीर्थङ्कर केवली प्रभुके गुणके स्तवनसे ही तीर्थङ्कर केवली प्रभुकी स्तुति परमार्थतः है ।
सिद्धान्त-(१) किसी द्रव्यके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अन्य द्रव्यमें नहीं होते । (२) किसी द्रव्यको प्रशंसा उस ही के गुणोंके कथनसे है।
दृष्टि- १-परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय (२९)। २-स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिक