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________________ ७२ तथाहि समयसार इमां जीवादो देहं पुग्गलमयं थुणित्तु मुणी | दिहु संधुदो बंदिदो मए केवली भयवं ||२८|| चित्से प्यारे भौतिक, तनको स्तुति कर भले मुनी माने । श्री मगवत्केवलिको मैंने युति धन्वना को है ।। २६ ।। इममन्यं जीवाद्देहं पुद्गलमयं स्तुत्वा मुनिः । मन्यते खलु संस्तुतो वंदितो भया केवली भगवान् ||२८|| यथा कलधौत गुणस्य पांडुरत्वस्य व्यपदेशेन परमार्थतोऽतत्स्वभावस्यापि कार्तस्वरस्य व्यवहारमात्रेणैव पांडुरं कात्तंस्वरमित्यस्ति व्यपदेश: । तथा शरीरगुणस्य शुक्ललोहितत्वादेः स्तवनेन परमार्थतोऽतत्स्वभावस्यापि तीयंकरके व लिपुरुषस्य व्यवहारमात्रेणैव शुक्ललोहितस्तीर्थकरकेवलिपुरुष इत्यस्ति स्तवनं । निश्चयनयेन तु शरीरस्तवनेनात्मस्तवनमनुपपन्नमेव ॥ २८ ॥ नामसंश- इम, अण्ण, जीव, देह, पुग्गलमय, मुणि, हु, संधुद, बंदिद, अम्ह, केवलि, भगवंत । धातुसं-त्युण स्तुतौ, बंद स्तुती, मन्त्र अवबांधने । प्रकृतिशब्द — इदम् अन्य, जीव, देह, पुद्गलमय, मुनि, खलु, संस्तुत, वंदित, अस्मद् केवलिन्, भगवत् । मूलघातुष्टुत्र, स्तुती, मन-ज्ञाने दिवादि । पदविवरणइमं द्वितीया एक० । अन्यं द्वि० ए० । जीवात् पंचमी एक० । देहं द्वि० एक० पुद्गलमयं द्वितीया ए० । स्तुत्वा असमाप्तिकी क्रिया । मुनिः - प्रथमा एक० । मन्यते वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । खलु - अव्यय । संस्तुतः - प्रथमा एक० कृदन्त क्रिया । वंदितः - प्रथमा एक० क्रिया कृदन्त । मया - तृतीया एक० कर्मवाच्ये कर्ता, केवली - प्रथमा एक० भगवान् प्रथमा ए० कर्मवाच्य में कर्म ॥२८ प्रशंसा बताई जाती है । (२) परमार्थतः खुदके गुणकी प्रशंसासे उसको प्रशंसा होती है । दृष्टि - १ - संश्लिष्ट विजात्यस भूतव्यवहार ( १२५ ) २ - शुद्ध निश्चयतय ( ४६ ) । प्रयोग - देसे प्रत्यन्त भिन्न ज्ञानमात्र प्रभुको निरखकर प्रभुसमान अपने स्वभावको निरखें ||२८|| ऊपरकी बात को माथासे कहते हैं - [ तत् ] वह स्तवन युज्यते ] ठीक नहीं है [हि] क्योंकि [शरीरगुणाः] शरीरके गुण भवंति ] नहीं है । [ यः ] जो [केवलिगुरगान् ] केवलीके गुणोंकी [स] वही [ तत्त्वं ] परमार्थसे [केवलिनं] केवलीको [ स्तोति ] स्तुति करता है । तात्पर्य ---- वास्तव में प्रभु परमात्मा के गुणोंके स्तवनसे ही प्रभु परमात्माको स्तुति बनती है । [निश्चये ] निश्चय में [न [केवलिनः ] केवलीके [न [स्तौति ] स्तुति करता है। टोकार्थ --- जैसे सुधरा में चीिके सफेद गुरणका अभाव होनेके कारण निश्चय से सफेदपने के नामसे सोनेका नाम नहीं बनता, सुवर्णके गुरण जो पीतपना आदि हैं उनके ही नामसे सुव
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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