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पूर्व रंग
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पपत्तेः नानात्वमेवेत्येवं हि किल नयविभागः ततो व्यवहारनयेनैव शरोरस्तवनेनात्मस्तवनं मुपपन्तं ॥। २७।।
निश्चयस्य षष्ठी एक० जीवः प्रथमा एक० । देहः प्रथमा एक० च अव्यय । कदा- अव्यय । अपि-अव्यय । एकार्थः प्रथमा एकवचन ॥ २७॥
स्वरूपमें विश्राम करना चाहिये ||२७||
यही बात भागेको गाथामें स्पष्ट करते हैं -- [ जीवात् श्रन्यं ] जीवसे भिन्न [ इमं पुद गलमयं देहं ] इस पुद्गलमय देहकी [ स्तुत्वा ] स्तुति करके [ मुनिः] साधु [ खलु मन्यते ] निश्चयतः ऐसा मानता है कि [मया] मैंने [केवली भगवान् ] केवली भगवान्की [स्तुतः ] स्तुति की ओर [ वंदितः ] वन्दना की ।
तात्पर्य - - देहको स्तुति करनेपर प्रभुकी ही स्तुति होना प्रज्ञानी मानता है ।
टीकार्थ - - जैसे चांदी के गुण श्वेतपनेके नामसे सुवर्णको भी श्वेत कहते हैं सो परमार्थ से विचारा जाय तब सुवरका स्वभाव सफेद नहीं है, पोला है, तो भी व्यवहारमात्र से हो स्वर्ण श्वेत है, ऐसा कहा जाता है । उसी तरहसे शुक्ल रक्तपना प्रादिक शरीरके गुण हैं, उनके स्तवन से परमार्थं से शुक्लपना आदि तीर्थंकर केवली पुरुषका स्वभाव न होनेपर भी तीर्थङ्कर केबलो पुरुषका व्यवहारमात्र से ही तीर्थंङ्कर केवली पुरुष शुक्ललोहित है, ऐसा स्तवन होता है । परन्तु निश्चयनयसे शरीरका स्तवन करनेसे आत्माका स्तवन नहीं बन सकता ।
प्रश्न - व्यवहारनयको तो असत्यार्थं कहा है और शरीर जड़ है सो व्यवहारका श्राश्रय करके जड़की स्तुति करनेका क्या फल है ? उत्तर- व्यवहारनय सर्वथा असत्यार्थ नहीं है निश्चयको प्रधान कर ग्रसत्यार्थ कहा है, छद्यस्थ (अल्पज्ञानी) को अपना परका श्रात्मा साक्षात् दोखता नहीं है शरीर ही दीखता है, उसकी शान्तरूप मुद्राको देख अपने भी शांतभाव हो जाते हैं । अतः ऐसा उपकार जान शरीरके श्राश्रयसे भी स्तुति करता है, शांतमुद्रा देख अन्तरंग में वीतराग भावका निश्चय होता है यह भी तो उपकार है ।
प्रसंगविवरण - अनन्तरपूर्व गाथामें प्रासंगिक स्तुतिके विषय में बताया गया था कि प्रतिबुद्ध व्यवहार व निश्चयका विभाग नहीं जानता। उसके सम्बन्ध में यहाँ व्यवहारस्तुति का विभाग बताया गया है ।
तथ्यप्रकाश - ( १ ) प्रभुकी निर्मलता के प्रतिशयसे वह देह भो निर्मल हो गया है, निमित्तप्रदर्शनार्थं व प्रयोजनवश प्रभुस्तवन के लिये देहके गुणोंका स्तवन किया जाता है । (२) निश्चयनयसे आत्मा के स्तवन से ही ग्रात्माका स्तवन माना जाता है ।
सिद्धान्त --- (१) निमित्तका प्रसाद बतानेके लिये अन्य द्रव्यके नैमित्तिक अतिशयकी