________________
७४
समयसार कशं शरीरस्तवने तदधिष्ठातृत्वादात्मनो निश्चयेन स्तवनं न युज्यत इति चेत् -
णयरम्मि वरिणदे जह ण वि रगणो वण्णणा कदा होदि । देहगुणे थुव्वंते ण केवलिगुणा थुदा होति ॥३०॥
नगरीके वर्णनमें, ज्यौं राजाको न वर्णना होती।
तन गुणके धरनमें, त्यों नहि प्रभूको स्तुती होती ॥३०॥ नगरे वणिते यथा नापि राज्ञो वर्णना कृता भवति । देहगुणे स्तूयमाने न केवलिगुणाः स्तुता भवति ॥३०॥
सयहि-त्राकारकरिताबरमुपयनराजनिगीर्णभूमितलं । पिवतीव हि नगरमिदं परिखायलयेन पातालं ॥२५॥ इति नगरे वणितेपि राज्ञः तदधिष्ठातृत्वेपि प्राकारोपवनपरिखादिमत्त्वाभावाद्वर्णनं न स्यात् । तथैव--नित्यमविकारसुस्थितसर्वागमपूर्वसहजलावण्यं । प्रक्षोभ
नामसंज्ञ-णयर, वण्णिद, जह, ण, नि, राय, वणणा, कदा, देहगुण, थुब्बत ण, केलिगुण, थुद । धातुसंज-वण्ण वर्णने, हो सत्तायां । प्रकृतिशब्द -नगर, वर्णित, यथा, न, अपि, राजन्, वर्णनत्र , कृता, देहगुण, स्तूयमान, न केवलिगुण, स्तुत। मूलधातु-वर्ण-वर्णने, राज दीप्ती, भू सत्तायां, ष्टुन स्तुती । नय (२८)।
प्रयोग--प्रभुके गुणोंके स्तवनसे प्रभुका ध्यान बनाकर शुद्ध पर्यायको स्रोतमें मग्न कर सहजात्मस्वरूपका ध्यान करना चाहिये ॥२६॥
अब जिज्ञासा होती है कि प्रात्मा तो शरीरका अधिष्ठाता है, इसलिये शरीरको स्तुति करनेसे प्रात्माका स्तवन निश्चयसे क्यों ठीक नहीं है ? इसका समाधानरूप गाथा दृष्टांतसहित कहते हैं--[यथा] जैसे [नगरे] नगरका [रिणते] वर्णन करनेपर [राजः वर्सना] राजाका वर्णन [नापि कृता] किया नहीं [भवति] होता उसी तरह [देहगुणे स्तूयमाने] देहके गुरणों का स्तवन होनेपर किवलिगुरणाः] केवलीके गुण [स्तुता न] स्तवनरूप किये नहीं [भवन्ति] होते।
तात्पर्य--नगरीका वर्णन होनेपर राजाका वर्णन न होने की तरह देहके गणोंका वर्णन होनेपर परमात्माका वर्णन नहीं हो पाता।
इसो नर्थका टीकामें काव्य कहा गया है--'प्राकार' इतयादि । अर्थ-यह नगर ऐसा है कि जिसने कोट (परकोटा) से माकाशको ग्रस लिया है अर्थात् इसका कोट बहुत ऊंचा है। बगीचोंको पंक्तियोंसे जिसने भूमितलको निगल लिया है अर्थात् चारों भोरके बामोंसे पृथ्वो ढक गई है 1 कोटके चारों तरफ खाईके धेरैसे मानो पातालको पी रहा है अर्थात् खाई बहुत गहरी है। लोग ऐसे नगरका वर्णन करते हैं सो यद्यपि इसका अधिष्ठाता राजा है तो भी कोट, बाग,
--
-
-