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पूर्व रंग मिव समुद्रं जिनेन्द्ररूपं परं जयति ।। २६॥ इति शरीरे स्तूयमानेपि तीर्थङ्करकेवलिपुरुषस्य तद. धिष्ठातृत्वेपि सुस्थितसर्वांगत्वलावण्यादिगुणाभावात्स्तवनं न स्यात् ॥३०॥ पदविवरण–नगरे-सप्तमी एक० । वणिते-सप्तमी एकः । यथा--अव्यय । न--अध्यय । अपि-अध्यय । राज्ञः-पष्ठी एक० । वर्णना-प्रथमा एक० । कृता-प्र० ए० । अपि-अव्यय । भवति-वर्तमान लट अन्य पुरुष एक० । देहगुणे-सप्तमी एक० । स्तूयमाने-सप्तमी एकनअव्यय । केवलिगुणा:-प्रथमा बहु० | स्तुता:प्रथमा बहु । भवंति–वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० ॥३०॥ खाई आदि बाला राजा नहीं है, इसलिये ऐसे नगरके वर्णनसे राजाका वर्णन नहीं हो सकता। उसी तरह तीर्थङ्करका स्तवन शरीरको स्तुति करनेसे नहीं हो सकता है । इसी अर्थको काव्य में कहते हैं --
"नित्य' इत्यादि । अर्थ-अच्छी तरह सुखरूप सर्वाम जिसमें प्रविकार स्थित है, अपूर्व स्वाभाविक लावण्य है जिसमें याने जो सबको प्रिय लगता है, जो समुद्र की तरह क्षोभरहित है, ऐसा जिनेन्द्ररूप सदा जयवंत हो। इस प्रकार शरीरकी स्तुति की, सी यद्यपि तीर्थङ्कर केवली पुरुषके शरीरका अधिष्ठातापना है तो भी सुस्थित सर्वांगपना लावण्यपना आत्मा का गुरण नहीं है, इसलिये तीर्थकर केवली पुरुषके इन गुणोंका अभाव होनेसे शरीरको स्तुति द्वारा उनको स्तुति नहीं हो सकतो ।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें यह बताया गया था कि निश्वयतः शरीरको स्तुतिसे प्रभुको स्तुति नहीं होती, उसीका विवरण इस गाथामें है ।
तथ्यप्रकाश-(१) परमात्माकी विशेषता समझानेके लिये शरीरको विशेषता बतानेमें परमात्माके शरीरका अधिष्ठातृत्व सम्बन्ध सूचित होता है । (२) परमौदारिक शरीरका अधिठातृत्व होनेपर भो शरीरका गुण परमात्मामें न होनेसे शारीरस्तवनसे परमात्मस्तवन नहीं होता ।
सिद्धान्त-(१) एकसे सम्बंधित विजातीय पदार्थकी विशेषतासे उस एककी विशेषता बताना उपवारभाषाको विधि है । (२) किसी एक पदार्थका गुण किसी अन्य पदार्थमें संक्रान्त नहीं होता।
दृष्टि- १-परसम्बन्धव्यवहार (१३५) । २--परद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिकनय (२६) ।
प्रयोग-—शरीरकी विशेषतानोंको शरीरमें परिसमाप्त जानकर उसका ख्याल छोड़कर अपनेको चैतन्यात्मक स्वरूपमें तन्मय अनुभवना चाहिये ॥३०॥
अब जिस तरह तीर्थङ्कर केवलौकी निश्चय स्तुति हो सकती है उसी रीतिसे कहते हैं जसमें भी पहले ज्ञेय ज्ञायकके संकरदोषका परिहार करके स्तुति करते हैं-[यः जो [इन्दि.