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________________ ७६ समयसार निश्चयस्तुतिमाह तत्र ज्ञेयज्ञायकसंकरदोष परिहारेण तावत् जो इन्दिये जिणित्ता गाणसहावाधियं मुन्दि यादं । तं खलु जिदिदियं ते भांति जे विच्छिदा साहू || ३१ ॥ जो जीति इन्द्रियोंको ज्ञानस्वभावी हि प्रापको माने । नियत जितेन्द्रिय उसको परम कुशल साधुजन कहते ॥३१॥ यः इन्द्रियाणि जित्वा ज्ञानस्वभावाधिक जानात्यात्मानं । तं खलु जितेन्द्रियं ते भगति ये निश्चिताः साधवः । यः खलु निरवधिबंधपर्यायवशेन प्रत्यस्तमितसमस्तस्वारविभागानि निर्मलभेदाभ्यासकौशलोपब्यांतःस्फुटातिसुक्ष्मचित्स्व भावाष्टभबलेन शरीरपरिणामापन्नानि द्रव्येन्द्रियाणि प्रतिविशिष्टस्वस्वविषयव्यवसायितया खंडशः श्राकर्षन्ति प्रतीयमानाखंडेकचिच्छक्तितया भावेन्द्रियाणि नामसंज्ञ ज, इंदिय, णाणसहावाधिय, अत्त, त, खलु, जिंदिदिय, त ज णिच्छिद साहु | धातुसंज्ञ -- जिण जये. कुण जाने, भण कथने । प्रकृतिशब्द-यत्, इन्द्रिय ज्ञानस्वभावाधिक, आत्मन् तत् खलु, जितेन्द्रिय, तत् यत् निश्चित साधु । मूलधातु- इदि परमैश्वर्य, जि-जये, मन ज्ञाने, अत सातत्यगमने, पारिण] इन्द्रियों [जिल्ला ] जीतकर [जळगावधिक ज्ञानस्वभाव द्वारा अन्य द्रव्यसे अधिक [ श्रात्मानं ] श्रात्माको [ जानाति ] जानता है [ तं खलु ] उसको नियमसे [ये निश्चिताः साधवः ] जो निश्चयनय में स्थित साधुजन हैं [ते] वे [जितेन्द्रियं ] जितेन्द्रिय ऐसा [ भांति ] कहते हैं । तात्पर्य — जो सहज ज्ञानस्वभावमय आत्माको अनुभव कर इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त कर लेते हैं वे जितेन्द्रिय कहलाते हैं । टीकार्थ- जो मुनि द्रव्येन्द्रिय, भावेन्द्रिय तथा इन्द्रियके विषयोंके पदार्थ इन तीनोंको ही असे पृथक कर सब अन्य द्रव्योंसे भिन्न अपने आत्माका अनुभव करता है, वह निश्चयसे जितेन्द्रिय है । कैसी हैं द्रव्येन्द्रियाँ ? अनादि अमर्यादरूप बंधपर्यायके वशसे जिनसे समस्त स्वपरका विभाग नष्ट हो गया है और जो शरीर परिणामको प्राप्त हुई हैं अर्थात् ग्रात्मा से ऐसे एक हो रही है कि भेद नहीं दिखता, उनको तो निर्मल भेदके अभ्यासकी प्रबलता से प्राप्त अन्तरंग प्रकट प्रति गुक्ष्म चैतन्यस्वभाव के अवलम्बनसे अपने से पृथक् किया है, यही द्रव्येन्द्रियोंका जीतना हुआ। कैसी हैं भावेन्द्रिय ? पृथक-पृथक विशेषको लिये हुए जो अपने विषय उनमें व्यापार करनेके कारण जो विषयोंको खंडखंड ग्रहण करती हैं अर्थात् ज्ञानको खंडखंडरूप जानती हैं, उनको प्रतीतिमें श्राती हुई प्रखंड एक चैतन्यशक्तिसे अपनेसे भिन्न
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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