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________________ पूर्व रंग ग्राह्यग्राहकलक्षणसम्बन्धप्रत्यासत्तिवशेन सह संविदा परस्परमेकीभूतानिव चिच्छुक्तेः स्वयमेवानुभूयमानासंगतया भावेन्द्रियावगृह्यमाणान् स्पर्शादीनिन्द्रियाश्चि सर्वथा स्वतः पृथक्करणेन विजित्योपरतसमस्तज्ञेयज्ञायकसंकरदोषत्वेनेकवे टंकोत्कीर्ण विश्वस्याप्यस्योपरि तरता प्रत्यक्षो. भण-शब्दार्थः, साध-ससिद्धौ । पदविवरण-य:-प्रथमा एक० पुं० कर्ता। इन्द्रियाणि-द्वितीया बहु० । असमाप्तिकी क्रियाका कर्म । जित्वा-असमाप्तिकी क्रिया। ज्ञानस्वभावाधिक-द्वितीया एकः । मन्यते वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । आत्मान-द्वितीया एक० । तं-द्वितीया एक० । खलु-अव्यय । जितेन्द्रिय-द्वितीया जानती है, यही भावेन्द्रियोंका जीतना हुआ । इंद्रियोंके विषयभूत पदार्थ कैसे हैं ? ग्राह्यग्राहकलक्षण सम्बन्धकी निकटताके वशसे अपने सम्वेदन (अनुभव) के साथ परस्पर मानो एक सरीखे हो गये हों ऐसे दीखते हैं, उनको अपनी चैतन्यशक्तिके अपने आप अनुभवमें प्राता हुपा जो प्रसंगपना---एकत्व उसके द्वारा भावेन्द्रियसे ग्रहण किये हुए स्पर्शादिक पदार्थोंको अपनेसे पृथक् किया है। यही विषयभूत पदार्थोका जीतना हुया । इस प्रकार इन्द्रियज्ञानके और विषयभूत पदार्थोके ज्ञेयज्ञायकका संकरनामक दोष प्राता था, उसके दूर होनेसे प्रात्मा एकपने में टंकोत्कीर्णबत् निश्चल स्थित समस्त पदार्थोंके ऊपर तैरता, जानता हुया भी उनरूप नहीं होता, प्रत्यक्ष उद्योतपनेसे नित्य ही अन्तरंगमें प्रकाशमान, अविनश्वर, माप ही से सिद्ध और परमार्थरूप ऐसे भगवान ज्ञानस्वभावके द्वारा सब अन्य द्रव्योंसे अतिरिक्त परमार्थतः जो जानता है वह जितेन्द्रिय जिन है, इस प्रकार एक निश्चयस्तुति तो यह हुई । भावार्थ-प्रज्ञान में ज्ञेय तो इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थ और ज्ञायक आप प्रात्मा इन दोनोंका अनुभव विषयोंकी प्रासक्ततासे एकसा होता था, सो जब जेय व ज्ञायकको भेदज्ञानसे भिन्नता जानी तब ज्ञेयज्ञायकसंकर दोष दूर हुआ, ऐसा जानना । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया था कि देहकी स्तुतिसे प्रभुको स्तुति नहीं, किन्तु प्रभुके गुणों की स्तुतिसे प्रभुको स्तुति होती है । उसी प्रसंगसे सम्बंधित प्रथम निश्चयस्तुति इस गाथामें की गई है। तथ्यप्रकाश-(१) सम्यक्त्व हुए बाद मोक्षमार्गको प्रगति प्रथम कदम इन्द्रियविजय का बताया गया है । (२) इन्द्रियविषयोपभोगमें अन्तरंग बहिरंग साधन कुल ३ होते हैं--- द्रव्येन्द्रिय, भावेन्द्रिय व विषयसंग; सो इन तीनोंके विजयमें इन्द्रियविजय है (३) द्रव्येन्द्रियाँ स्थूल, भौतिक (शारीरिक) हैं उनका विजय अन्तःप्रकाशमान सूक्ष्म चैतन्यस्वभावके अवलम्बन . से होता है । (४) भावेन्द्रियाँ खण्डखण्ड जाननरूप हैं उनका विजय प्रखण्ड एक चित् शक्तिके अवलम्बनसे होता है। (२) विषयभूत पदार्थ संग कहलाते हैं उनका विजय असंग चैतन्यमान अन्तस्तत्त्वके अनुभवसे होता है । (६) यहाँ शेय है विषयभूत पदार्थ और प्रासंगिक जायक है
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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