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________________ कर्तृकर्माधिकार पुद्गलकर्म, यस्तु मिथ्यादर्शनमशानमविरतिरित्यादि जीवः स मूर्तात्पुद्गलकर्मणोऽन्यश्चतन्यपरिणामस्य विकारः॥१८॥ उपयोगः-प्रथमा , अज्ञान- मगाएन : अदिनिः- एमा एक० । मिथ्यात्व-प्रथमा एकवचन । च-अव्यय । जीवः-प्रथमा एकवचन । तु-अव्यय ८८ प्रयोग-प्रकृतिसे, प्रकृतिनिमित्तक प्रभावसे भिन्न पुरुषतत्व (आत्मतत्व) को आपा निरखकर इस ही अन्तस्तत्त्वमें रमनेका पौरुष करना ॥८॥ प्रश्न-जीव मिथ्यात्वादिक भाव चैतन्यपरिणामका विकार किस कारण है ? उत्तर[मोहयुक्तस्य अनादिसे मोहयुक्त उपयोगस्य उपयोगके [अनादयः] अनादिसे लेकर [त्रयः परिणामाः] तीन परिणाम हैं वे [मिथ्यात्वं] मिथ्यात्व [प्रज्ञान] प्रज्ञान [च अविरतिभावः] और अविरतिभाव ये तीन [ज्ञातव्यः] जानना चाहिये । टोकार्थ-निश्चयसे समस्त वस्तुमोका स्वरसपरिणमनसे स्वभावभूत स्वरूपपरिणमन में समर्थता होनेपर भी उपयोगका अनादिसे ही. अन्य वस्तुभूत मोहयुक्त होनेसे मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति ऐसे तीन प्रकारका परिणामविकार है । और वह स्फटिकमणिकी स्वच्छतामें परके डंकसे परिणामविकार हुएकी भांति परसे भी होता । हुमा देखा गया है । जैसे स्फटिककी स्वच्छतामें अपना स्वरूप उज्ज्वलतारूप परिणामकी सामर्थ्य होनेपर भी किसी समय काला, हरा, पीला जो तमाल, केर, सुवर्णपात्र समीपवर्ती भाश्रयकी युक्ततासे नोला, हरा, पीला ऐसा तीन प्रकार परिणामका विकार दीखता है, उसी प्रकार प्रात्माके (उपयोगके) अनादि मिथ्यादर्शन, अज्ञान, प्रविरति स्वभावरूप अन्य वस्तुभूत मोहकी युक्तता होनेसे मिथ्यादर्शन, अज्ञान, प्रविरति ऐसे तीन प्रकार परिणामविकार निरख लेना चाहिये । भावार्थ --प्रात्माके उपयोग में ये तीन प्रकारके परिणाम विकार मनादि कर्मके निमित्तसे हैं । कहीं ऐसा नहीं है कि पहले प्रात्मा शुद्ध ही था, अब यह नवीन ही अशुद्ध हुअा हो । ऐसा हो तो सिद्धोंको भी फिरसे अशुद्ध होना चाहिये, किन्तु ऐसा नहीं है । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व माधामें बताया गया था कि मिथ्यात्वादि पुद्गलकर्मरूप हैं और उपयोगरूप याने जीवरूप भी हैं । इस कथनपर यह प्रश्न हो जाता है कि चैतन्यस्वरूप जीवके ये मिथ्यात्वादि विकार कैसे हो गये ? इसका उसर इस गाथामें है। __ तथ्यप्रकाश-(१) सभी पदार्थों की भांति उपयोग (जीव) भो स्वरूपपरिणमनमें समर्थ होनेसे परिणमता रहता है । (२) इस उपयोग (जीव) का अनादिवस्त्वन्तरभूत मोहसे युक्तपना होनेसे निमित्तनैमित्तिक योगवश वस्त्वंतरभूत विपाकके अनुरूप मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरतिरूप परिणामता रहता है।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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