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समयसार काविह जीवाजीवाविति चेत्
पुग्गलकम्म मिच्छं जोगो अविरदि प्रणाणमज्जीवं । उवयोगो अण्णाणं अविरइ मिच्छंच जीवोदु ॥८॥ पौगलिक कर्म मिथ्या, अविरति प्रज्ञान योग निश्चेतन ।
मिथ्या अविरति प्रज्ञा-न योग उपयोगमय चेतन ॥५॥ पुद्गलकर्म मिथ्यात्वं योगोऽविरतिरज्ञानमजीवः । उपयोगोऽज्ञानमविरतिमिथ्यात्वं च जीवस्तु ।।८८||
यः खलु मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादिरजीवस्तदमूर्ताच्चैतन्यपरिणामावन्यत् मूतं
नामसंज्ञ-पुग्गलकम्म, मिच्छ, जोग, अविरदि, अण्णाण, अज्जीव, उवओग, अण्णाण, अविरदि, मिच्छ, च, जीव, दु। धातुसंश----जीव प्राणधारणे । प्रातिपदिक--पुद्गलकर्मन् मिथ्यात्व, योग, अविरति, अज्ञान, अजीव, उपयोग, अज्ञान, अविरति, मिथ्यात्व, च, जीव, तु । मूलधातु-पूरी आप्यायने, गल अदने,
कृत्र करणे, युजिर योगे, अ-ज्ञा अवबोधने । पदविवरण–पुद्गलकर्म-प्रथमा एक० । मिथ्यात्व-प्रथमा एक० । योग:-प्रथमा एक० । अविरति:-प्रथमा एक० । अज्ञान-प्रथमा एक । अजीव:-प्रयमा एक० । [आजीवः] अजीव है वह तो [पुद्गलकर्म] पुद्गलकर्म है [च] और जो [अज्ञान] अज्ञान [प्रकि. रतिः प्रविरति [मिथ्यात्वं] मिथ्यात्व [जीवः] जीव है [तु] सो [उपयोगः] उपयोग है ।
तात्पर्य-मिथ्यात्वादिक कर्मप्रकृतियाँ तो अजीव हैं और उन प्रकृतियोंके विपाकका सान्निध्य पाकर उपयोगमें जो उस विपाकका प्रतिफलन व विकल्प होता है वह जीव (जीवविकार) है।
___टोकार्थ-जो निश्चयसे मिथ्यादर्शन, प्रज्ञान, प्रदिरति इत्यादि अजीव हैं वे प्रमूर्तिक चैतन्यके परिणामसे पन्य मूर्तिक पुद्गलकर्म हैं और जो मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि जीव हैं वे मूर्तिक पुद्गलकर्मसे अन्य चैतन्यपरिणामके विकार हैं।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि मिथ्यात्व प्रादि जीव व मजीव दोनोंरूप हैं, इसपर यह जिज्ञासा हुई कि वे जीव अजीवरूप कौन-कौन हैं ? इसके समाधानमें यह गाया प्राई है ।
सध्यप्रकाश--(१) मिथ्यात्वप्रकृति, अनन्तानुबंधी क्रोधादि १२ चारित्रमोहनीयप्रकतियाँ, ज्ञानावरण व शरीर मङ्गोपाङ्गादि नामकर्म प्रादि ये सब अजीव द्रध्यप्रत्यय हैं । (२) मिथ्यात्वभाव, हिंसादि पापभाव, प्रज्ञान व भावयोग ये सब जोवरूप भावप्रत्यय है। (३) द्रव्यप्रत्यय जीवसे पृथक् हैं । (४) माधप्रत्यय पुद्गलकर्मसे पृथक् हैं ।
सिवान्त-(१) द्रव्यप्रत्यय उपादानरूप पौद्गलिक हैं । (२) भावप्रत्यय उपादानतया जीवरूप हैं।
दृष्टि-१- अशुद्धनिश्चयनय (४७) । २- अशुद्धनिश्चयनय (४७) ।