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________________ कर्तृकर्माधिकार १८३ भावाः स्वद्रव्यस्वभावत्वेनाजोवेन भाव्यमाना अजोव एव । तथैव च मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादयो भावाश्चैतन्यविकारमात्रेण जीवेन भाव्यमाना जीव एव ।।८७) ऋध क्रोधे दिवादि । पदविवरण-मिथ्यात्वं-प्रथमा एक० । पन:-अव्यय । द्विविध-प्रथमा एक । जीव:प्रथमा एक अजीव:-प्रथमा एक० । तथा-अव्यय । एक-अव्यय। अज्ञान-प्रथमा एक० । अविरतिःप्रथमा एक० । योग:-प्रथमा एक । मोहः-प्रथमा एक० । क्रोधाद्या:--प्रथमा बहुवचन । इमे-प्रथमा बहु० । भावा:-प्रथमा बहुवचन ।।७।। प्रसंगविवरण--अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका कभी फर्ता हो ही नहीं सकता। इससे अनन्तरपूर्व स्थलमें कहा गया था कि पुद्गलकर्मका व जीवपरिणामका परस्पर निमित्तनैमित्तिक भातमात्र है। इन तथ्योंको स्पष्ट करनेके लिये दोनों द्रव्योंका स्वतंत्र-स्वतंत्र अनुरूप परिणाम बताने वाली यह गाथा पाई है। तथ्यप्रकाश--(१) पोद्गलिकमिथ्यात्व प्रादि प्रकृति उदयका निमितमात्र पाकर जीव में जो मिथ्यात्व भाव प्रादि होता है वह जीवमिथ्यात्व मादि है जो कि पोद्गलिक मिथ्यास्वादिसे भिन्न है । (२) जीवके मिथ्यात्वभाव आदिका निमित्तमात्र पाकर पौद्गलिक कार्माणवर्गणावों में जो मिथ्यात्वप्रकृतिरूप प्रादि कर्मत्व होता है वह पौद्गलक मिथ्यात्व शादि है जो कि जीव मिथ्यात्व आदिसे भिन्न है जैसे कि मनुष्यमुखका सामना पाकर दर्पणमें जो मुखाकार स्वच्छताविकार है वह फोटो दर्पणमुख है जो कि मनुष्यमुखसे भिन्न है । (३) पुद्. गलकर्ममें जो प्रकृति स्थिति प्रदेश अनुभाग है उसका कर्ता व उपादान स्वामी पुद्गल कर्म है। (४) जीवमें जो मिथ्यात्व कषाय विकल्पभाव होता है उसका कर्ता व उपादान जीव है। सिद्धान्त-- (१) मिथ्यात्व प्रादि पुद्गलकर्मप्रकृतियों का कर्ता पुद्गलकार्माणस्कंध है। (२) मिथ्यात्व आदि पुद्गलकर्मप्रकृतियोंकी उद्भूतिका निमित्त जीवपरिणाम है । (३) मिध्यात्वादि विभावोंका कर्ता संसारी जीव है । (४) मिथ्यात्वादि विभावोंको उद्भतिका निमित्त मिथ्यात्वादि कर्मप्रकृतियोंका विपाकोदय है। दृष्टि- १- कारककारकिभेदक अशुद्ध सद्भूतव्यवहार (७३५) । २- उपाधिसापेक्ष प्रशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४) । ३- कारककारकिभेदक प्रशुद्ध सद्भूतव्यवहार (७३) । उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याधिकनय (२४)। प्रयोग-कर्मविकारोंको कर्ममें और जीवविकारोंको जीवमें निरखकर पराधीनता र कायरताका भाव हटाना चाहिये और निमित्तनैमित्तिक भाव परखकर अपनेको अविकार चैत. न्यस्वभावमात्र अङ्गीकार करना चाहिये ॥८७।। यहाँ पूछते हैं कि मिथ्यात्वादिक जीव अजीव कहे हैं वे कौन हैं, उसको उत्तर कहते हैं- [मिथ्यात्वं] जो मिथ्यात्व [योगः] योग [अविरतिः] अविरति [प्रमानं] प्रज्ञान
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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