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________________ १८२ समयसार मिच्छत्तं पुण दुविहं जीवमजीवं तहेव अण्णाणं। अविरदि जोगो मोहो कोहादीया इमे भावा ॥८७॥ मिथ्यात्व दो तरहका, जीव अह मजीवरूप होता है। अजान मोह प्रविरति, क्रोधादि योग भी दो दो ॥७॥ मिथ्यात्वं पु नहि विधं जीवो जीवस्तथैवाज्ञानं । अविरति योगो मोहः क्रोधाद्या इमे भावाः ।।७।। मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादयो हि भावाः ते तु प्रत्येक मयूरमुकुरंदवज्जीवाजीवाभ्यां भाव्यमानत्वाज्जोवाजीवौ । तथाहि--यथा नीलकृष्णहरितपीतादयो भावाः स्वद्रव्यस्वभावत्वेन मयूरेण भाध्यमानाः मयूर एव । यथा च नीलकृष्णहरितपीतादयो भावाः स्वच्छसाविकारमात्रेण मुकुरदेन भाव्यमाना मुकुरंद एव । तथा मिथ्यादर्शनमशानमविरतिरित्यादयो नामसंश. मिच्छत्त, पण, दुविह, जीव, अजीव, तह, एव, अण्णाण, अविरदि, जोग, मोह, कोहादीअ, इम, भाव। धातुसंश-भव सत्तायां । प्रकृतिशम्द -मिथ्यात्व, पुनर्, द्विविध, जीव, अजीय, तथा, एव, अज्ञान, अविरति, योग, मोह, इदम्, भाव । मूलधातु-विध विधाने, युजिर् योगे रुधादि, मुह वैचित्ये, टोकार्थ-मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादिक जो भाव हैं वे प्रत्येक पृथक-पृथक् मयुर और दर्पएको भांति जीव अजीवके द्वारा हुवाये गये हैं, इसलिये जीव भी हैं और अजीष भी हैं । जैसे मयूरके नीले, काले, हरे, पीले प्रादि वर्ण रूप भाव मयूरके निज स्वभावसे भाये हुए मयूर ही हैं। और, जैसे दर्पणमें उन वों के प्रतिबिम्ब दिखते हैं, वे दर्पणको स्वच्छता (निर्मलता) के विकार मात्रसे भाये हुए दर्पण ही है । उसी प्रकार मिथ्यादर्शन, प्रज्ञान, प्रविरति इत्यादिक भाव अपने अजीवके द्रष्यस्वभावसे (प्रजीवरूपसे) भाये हुए अजीव ही हैं तथा वे मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति प्रादि भाव चैतन्यके विकारमात्रसे (जीवसे) भाये हुए जीव ही हैं। भावार्थ-पुद्गलकर्मके विपाकके निमित्तसे जीव विभावरूप परिणमन करते हैं सो वहाँ वे जो चेतनके विकार हैं, वे जीव ही हैं और जो पुद्गल मिथ्यात्वादिक कर्मरूप परिणमन करते हैं, वे पुद्गलके परमाणु हैं तथा उनका विपाक उदयरूप होकर बे स्वादरूप होते हैं, वे मिथ्यात्वादि अजीव हैं । ऐसे मिथ्यात्वादि भाव जीव अजीवके भेदसे दो प्रकारके हैं--(१) जीव मिथ्यात्वादि, (.) अजीव मिथ्यात्वादि । जो मिथ्यात्वादि कर्मकी प्रकृतियां हैं, वे पुगलद्रव्यके परमाणु हैं, अजीवमिथ्यात्व हैं उनका उदय हो तर उपयोगस्वरूप जीवके उपयोगकी स्वच्छताके कारण जिसके उदयका स्वाद प्राये, तब उसीके प्राकार उपयोग हो जाता है। पौर तब अज्ञानी जीवको उसका भेदज्ञान नहीं होता, सो वह उस स्वादको ही अपना भाव जानता है । जब इसका भेदज्ञान ऐसा हो जाय कि जीवभावको जीव जानें और अजीवभावको अजीव जानें, तभी मिथ्यात्वका अभाव होकर सम्यग्ज्ञान होता है ।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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