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कर्तृकर्माधिकार उभयोर्न परिगातिः स्यादनेक्रमनेकमेव सदा ।।५३।। नकस्य हि कर्तारौं द्वौ स्तो द्वे कर्मणो न चकस्य । नेकस्य च क्रिये द्वे एकमनेकं यतो न स्यात् ।।१४।। प्रासंसारत एवं धावति परं कुर्वेमित्युच्चकैः, दुर्वारं ननु मोहिनामिह महाहंकाररूपं तमः। तद्भूतार्थपरिग्रहेण विलयं यद्येकसमें ब्रजेत, किमानधनाय धनमहो भूयो भवेदात्मनः ॥१५॥ आत्मभावान्करोत्यात्मा परभावान्सदा परः । प्रात्मैव ह्यात्मनो भावाः परस्य पर एव ते ॥५६।। 11६॥ प्रथमा बहु० । द्विक्रियावादिनः-प्रथमा बहु० । भवन्ति-वर्तमान लट् अन्य प.० बहुवचन ॥८६॥ है वह कर्ता है । (३) जो परिणमन होता है वह कर्म है । (४) परिणति ही किया है। (५) कर्ता, कर्म व क्रिया---ये तीनों ही वस्तुपनेसे भिन्न नहीं है । (६) एक परिणमन दो द्रव्योंका नहीं होता। (७) एक द्रव्य दो का ६.रणमन नहीं करता। (८) जिनको स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावमय अंतःस्वरूपकी श्रद्धा है उनके परकर्तृत्वका अहंकार नहीं रहता । (E) जिनके अहंकार नहीं है, उनके संसारबंधन नहीं है ।
सिद्धान्त--(१) प्रत्येक द्रव्य अपने ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे ही है । (२) प्रत्येक द्रव्यका कर्तृ कर्मत्व स्वयं अपने अपनेमें ही है।
दृष्टि--- १- स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिकनय (२८)। २- कारककारकिभेदक सद्भून. व्यवहार (७३), कारककारकिभेदक अशुद्ध सद्भूतव्यवहार (७३)।
प्रयोग--न तो परमें कुछ किया जा सकता है और न परके द्वारा मुझमें कुछ किया जा सकता है, ऐसे अत्यन्त भिन्न समस्त परद्रव्योंसे लगाव मूलतः नष्ट करके अपनेमें ही मात्र ज्ञानवृत्तिसे वर्तते रहनेका पौरुष करना ॥८६॥
शंका:--परद्रव्यका कर्तृकर्मत्व मानने वाला मिथ्या दृष्टि है यह कहा है। वहां यह ज्ञातव्य है कि मिथ्यात्वादिभाव किसके कहें ? यदि जीवके परिणाम कहे जायें तो पहले रागादि भावोंको पुद्गलके परिणाम कहा था, उस कथनसे यहाँ विरोध पाता है। यदि पुद्गलके परिणाम हे आयें तो जीवका कुछ प्रयोजन नहीं, फिर उसका फल जीव क्यों पावे ? अब इस जिज्ञासाका समाधान करते हैं----[पुनः] और [मिथ्यास्त्र] जो मिथ्यात्व कहा गया था वह [द्विविध] दो प्रकारका है [जीवं अजीवं] एक जीव मिथ्यात्व, एक अजीव मिथ्यात्व [तथैव] और उसी प्रकार [प्रज्ञान] प्रज्ञान [प्रविरतिः] अविरति [योगः] योग [मोहः] मोह पोर [क्रोधाधाः] क्रोधादि कषाय [इमे भावाः] ये सभी भाव जीव अजीवफे भेदसे दो-दो प्रकारके हैं।
तात्पर्य--कर्मप्रकृतियोंके मिथ्यात्व आदि नाम हैं और उन-उन प्रकृतियोंके उदयके जो जीवमें प्रतिफलित विकार हैं उनके भी ये ही नाम हैं, अतः मिथ्यात्व प्रादि दो-दो प्रकार के हो गये।