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पूर्व रंग कथं व्यवहारस्य परमार्थ प्रतिपादकत्वमिति चेत् -
जो हि सुएणहिगच्छइ अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्ध। तं सुयकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पईवयरा ॥६॥ जो सुयणाणं सव्वं जाणइ सुयकेवलि तमाहु जिणा। गाणं अप्पा सव्वं जमा सुयकेवली तह्मा ॥१०॥ (जुम्म)
जो श्रुतवेदित केवल, शुद्ध निजात्मा हि जानता होवे । ज्ञानी ऋषिधर उसको, निश्चयश्रुतकेवली कहते ॥६।। जो सब श्रतको जाने, उसको श्रुतकेवली प्रकट कहते ।
क्योंकि सकल श्रुतका जो, शान है सो प्रात्मा ही है ॥१०॥ यो हि श्रुसेनाभिगच्छति आत्मानमिमं तु केवलं शुद्धम् । तं श्रुतकेवलिनमृषयो भणंति लोकप्रदीपकराः ॥॥ यः श्रुतज्ञानं सर्वं जानाति श्रुतकेवलिनं तमाहुजिनाः । ज्ञानमात्मा सर्व यस्माच्छ्त केवली तस्मात् ॥१०॥
यः श्रुतेन केवलं शुद्धमात्मानं जानाति स श्रुतकेवलोति तावत्परमार्थों यः श्रुतज्ञानं सर्व जानाति स श्रुतकेवलीति तु व्यवहारः । तदत्र सर्वमेव तावत् ज्ञानं निरूप्यमाणं किमात्मा किमनात्मा ? न तावदनातमा समस्तस्याप्यनात्मनश्चेतनेतपरपदार्थपंचतयस्य ज्ञानतादात्म्यानुपपत्तेः । ततो गत्यंतराभावात् ज्ञानमात्मेत्यायात्यत: श्रुतज्ञानमप्यात्मैव स्यात् । एवं सति य
नामसंज्ञ----ज, हि, सुय, अप्प, इम, तु, केवल, सुद्ध, त, सुयकेवलि, इसि, लोयप्पईवयर, ज, सुयगाण, सम्व, सुयकेवलि, त, जिण, णाण, अप्प, सध्व, ज, सुयकेवलि, त । पातुसंज्ञ-अभि-गच्छ गती, भण व्यक्तायां वाचि, जाण अवबोधने । प्रकृतिशब्द-यत्, हि, श्रुत, आत्मन, इदम्, तु, केवल, शुद्ध, तत्, श्रुत केवलिन्, ऋषि, लोकप्रदीपकर, यत्, श्रुतज्ञान, सर्व, श्रुतकेलिन, तत्, जिन, ज्ञान, आत्मन्, सर्व यत्, तथ्यके प्रतिपादनपर यह जिज्ञासा होना प्राकृतिक है कि फिर तो व्यवहार कहा ही क्यों जाता, सिर्फ परमार्थ ही कहा जाना चाहिये । इसके समाधान के लिये इस गाथाका अवतार हुआ है।
तथ्यप्रकाश--(१) भेदविधिसे प्रतिपादनरूपरूप व्यवहारके बिना अभेद स्वतत्त्वके अपरिचित जोवोंको यह परमार्थ नहीं समझाया जा सकता । (२) प्रभेद ज्ञायकस्वरूपसे अपरिचित यह जीव अनादिसे है, प्रतः व्यवहारनय व व्यवहार इस जीवका उपकारी है, हस्तावलम्बनरूप है । (३) परमार्थ अन्तस्तत्त्वका दर्शन अनुभव करने वाले पवित्र मातमावोंको व्यवहारनय व व्यवहार अनुसरणीय (प्रयोजनवान) नहीं है।।
सिद्धान्त-(१) भेदविधिसे सहज तत्त्वका प्रतिपादन अनुसरणीय व्यवहार है।