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________________ २४ समयसार तोत्यात्मेत्यात्मपदस्याभिधेयं प्रतिपाटाते तदा सद्य एवोझदमंदानंदान्तःसुन्दरबंधुरबोधतरंगस्तत्प्रतिपद्यत एव । एवं म्लेच्छस्थानीयत्वाज्जगतो व्यवहारनयोऽपि म्लेच्छभाषास्थानीयत्वेन परमार्थप्रतिपादकत्वादुपन्यसनीयोऽथ च ब्राह्मणो न म्लेच्छितव्य इति वचनाद्व्यवहारनयो नानुसर्तव्यः ॥८॥ भाषा अनार्यषा तां । विना-अव्यय । तु-अव्यय । ग्राहयितु-गृहन्तं प्रेरयितुं । 'तथा--अव्यय । व्यवहारेण-त० ए० । विना-अव्यय । परमार्थोपदेशन-प्र० ए० । अशक्य--शक्तं योग्यम् शक्यं, न शव अशक्यम्--प्रथमा एकवचन ।।। न समझता हुमा ब्राह्मणके सामने मेढेकी तरह टकटकी लगाकर देखता ही रहा कि इसने क्या कहा है ? तब उस ब्राह्मणकी भाषा तथा म्लेच्छकी भाषा-इन दोनोंका अर्थ जानने वाले अन्य किसी पुरुषने उसे म्लेच्छ भाषामें समझाया कि 'स्वस्ति' शब्दका अर्थ है 'तेरा कल्याण हो ।' उस समय उत्पन्न हुए अत्यन्त प्रानन्दके प्रांसुरोंसे उस म्लेच्छके नेत्र भर पाये, इस तरह वह म्लेच्छ उस 'स्वस्ति' शब्दका अर्थ समझ ही लेता है । उसो तरह व्यवहारी जन भी 'आत्मा' ऐसा शब्द कहे जानेपर यथावस्थित प्रात्मस्वरूपके ज्ञानसे रहित होनेके कारण कुछ भी नहीं समझता हुमा मैंढेको तरह टकटको लगाकर देखता ही रहता है। और जब कोई व्यव. हार परमार्थ मार्गपर सम्यग्ज्ञान रूप महारथको चलाने वाले सारथोके समान प्राचार्य या अन्य कोई विद्वान् व्यवहारमार्गको दर्तकर 'दर्शन ज्ञान चारित्र रूप जो सदा परिणमन करे, वह पात्मा है ऐसा प्रात्मा शब्दका अर्थ कहता है तब उसी समय उत्पन्न हुए अत्यंत प्रानन्द वाले हृदय में सुन्दर ज्ञानरूप तरंगोंसे प्रमुदित वह उस आत्मशब्दका अर्थ अच्छी तरह समझ जाता है । इस प्रकार यहाँ जगतके म्लेच्छस्थानीयपना होनेसे और व्यवहारनयके म्लेच्छ भाषाके तुल्य होने से व्यवहार परमार्थका कहने वाला होनेसे उपदेश करने योग्य है । और ब्राह्मणको म्लेच्छित पाचरण करना योग्य नहीं है, इस वचनसे निश्चय करें कि व्यवहारनय परमार्थदर्शीके अनुसरण करने योग्य नहीं है। भावार्थ-शुद्धनयका विषय अभेद एकरूप बस्तु है, इस तथ्यको लोक जानते नहीं, किन्तु अशुद्धनयको ही जानते हैं, क्योंकि इसका विषय भेदरूप अनेक प्रकार है, इसलिये व्यवहारके द्वारा ही शुद्धनयरूप परमार्थको समझ सकते हैं । इस कारण व्यवहारनयका परमार्थोपदेशक होनेसे उपदेश किया जाता है । सो व्यवहारोपदेशमें प्राचार्य व्यवहारका पालंबन नहीं कराते हैं, किन्तु व्यवहारका पालंबन छुड़ाकर परमार्थमें पहुंचाते हैं । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि ज्ञानीके (प्रातमाके) ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है यह उपदेश व्यवहारसे ही है, परमार्थसे तो वह शुद्ध ज्ञायक ही है । इस
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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