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________________ पूर्व रंग एव । तथा किल लोकोप्पात्मेत्यभिहिते सति यथावस्थितात्मस्वरूपपरिज्ञानबहिष्कृतत्वान्न किचिदपि प्रतिपद्यमानो मेष इवानिमेषोन्मेषितचक्षुः प्रेक्षत एव । यदा तु स एव व्यवहारपरमार्थपपप्रस्थापितसम्यग्बोधमहारथरथिनान्येन तेनैव वा व्यवहारपथमास्थाय दर्शनज्ञानचारित्राण्यतशक्तुं योग्यः शक्यः तं । उप-दिश देशने । पदविवरण-यथा--अव्यय । न अध्यय । अपि--अव्यय । शक्तूं योग्यः शक्यः--प्रथमा विभक्ति एकवचन । अनार्थ:--न आर्यः इति अनार्यः प्र० ए० । अनार्यभाषां--अनार्यस्य प्रसंगविवरण-अनन्तर पूर्व गाथामें शुद्ध प्रात्माका वर्णन किया गया था और बताया गया था कि वह प्रभेद ज्ञायकमात्र है वह प्रमत्त ब अप्रमत्त भी नहीं है, वहां कोई भेद ही नहीं है । इसपर यह शंका उठना प्रासंगिक है कि प्रात्मामें ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है या प्रात्मा ज्ञानदर्शनचारित्र वाला है इतनी भेदरूप अशुद्धता तो होती ही है । इसके उत्तर में इस गाथाका अवतार हुम्रा है। तथ्यप्रकाश-(१) आत्मस्वरूपमें बन्धप्रत्ययक अशुद्धता नहीं। (२) प्रात्मस्वरूप में वस्तुतः गुणभेद नहीं । (३) अभेद ग्रातमवस्तुका परिचय करानेके लिये भेदविधिसे वर्णन करनेका व्यवहार आवश्यक हो जाता है । (४) परमार्थतः अभेद एकस्वभाव अन्तस्तत्त्वका अनुभव करने वालोंके तो मात्र शुद्ध ज्ञायकभाव हो है । सिद्धान्त-(१) प्रात्मस्वरूप अविकार है ! (२) आत्मस्वरूप एक अभेद है। (३) आत्मस्वरूपके ज्ञापन के लिये भेदविधिका व्यवहार है। दृष्टि---१- अखण्ड परमशुद्ध निश्चयनय (४४)। २- शुद्धनय (४६), ३-- भेदकल्पनासापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिक प्रतिपादकव्यवहार (८२)। प्रयोग- अपने अापके ध्यानमें ज्ञान दर्शन आदि गुणोंका चिन्तन न करके मात्र ज्ञानस्वरूपको ही ज्ञानमें लेना ।।७।। भेदव्यवहार है तो एक परमार्थका ही उपदेश करना चाहिए ? उसके उत्तरमें गाथा सूत्र कहते हैं---[यथा] जैसे [अनार्यः] म्लेच्छ पुरुष [अनार्यभाषां विना तु] म्लेच्छ भाषाके बिना तो [ग्राहयितु] वस्तुस्वरूप ग्रहण कराये जानेको [अपि न शक्यः] शक्य नहीं है [तथा] उसी तरह [व्यवहारेण विना] व्यवहारके बिना [परमार्थोपदेशनं] परमार्थका उपदेश करना भी [अशक्यम्] शक्य समर्थ नहीं है । ___ तात्पर्य-उपदेश व स्वाध्यायसे तत्त्व सुनकर यह भीतर मनन करना है कि यह सब प्रतिपादन अभेद चतन्यस्वरूपको समझके लिये है। टोकार्थ-जैसे कोई म्लेच्छ, किसी ब्राह्मणके द्वारा 'स्वस्ति हो' ऐसा शब्द कहे जानेपर उस प्रकारके उस शब्दके वाच्यवाचकसम्बंधके शानसे शून्य होनेसे उसका अर्थ कुछ भी
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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