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________________ २२ तहि परमार्थ एवैको वक्तव्य इति चेत्- समयसार जह सिक्कमज्जो अज्जमा विताउ हेडं । तह ववहारेण विद्या परमत्थुवएसणमसक्कं ॥ ८ ॥ तो भी श्रनार्थ जैसे, श्रनार्यभाषा बिना नहीं समझे । व्यवहार विना प्राणी, परमार्थोपदेश नहिं समझें ॥८॥ यथा नापि शक्योऽनायनार्यभाषां विना तु ग्राहयितुम् । तथा व्यवहारेण विना परमार्थोपदेशन मशक्यम् । यथा खलु म्लेच्छः स्वस्तीत्यभिहिते सति तथाविधवाच्यवाचक संबंधावबोध बहिष्कृतत्वान्न किंचदपि प्रतिपद्यमानो मेष इवानिमेषोन्मेपितचक्षुः प्रेक्षत एव । यदा तु स एव तदेतद्भाषासंबंधैकार्थज्ञेनान्येन तेनैव वा म्लेच्छभाषां समुपादाय स्वस्तिपदस्याविनाशो भवतो भवत्वित्यभिधेयं प्रतिपाद्यते तदा सद्य एवोद्यदमंदानंदमयाश्रु झलझलल्लोचनपात्रस्तत्प्रतिपद्यत - नामसंज्ञ --जह, गवि, सक्क, अणज्ञ्ज, अणञ्जभास, विणा, उ, तह, ववहार, विणा परमत्थुवएसण, अक्रु । धातुसंज्ञ— सक्क सामर्थ्यं गाह स्थापनाग्रहणप्रवेसेसु । प्रकृतिशब्द -- यथा न अपि शक्य अनार्य, अनार्यभाषा, विना तु, तथा, व्यवहार, विना, परमार्थोपदेशन अशक्य । मूलधातु शक्लृ - समर्थे, पंडित पुरुषों की दृष्टिमें दर्शन भी नहीं, ज्ञान भी नहीं और चारित्र भी नहीं, किन्तु एकमात्र शुद्ध ज्ञायक भाव ही है । भावार्थ -- इस शुद्ध ग्रात्मा के कर्मबंध के निमित्तसे प्रशुद्धता भाती है, यह बात तो दूर ही रहे, इसके तो दर्शन, ज्ञान, चारित्रका भी भेद नहीं है। फिर भी व्यवहारी जन धर्मोंको ही समझते हैं, धर्मीको नहीं जानते, इसलिये वस्तुके कुछ असाधारण घर्मोको उपदेश में लेकर प्रभेदरूप वस्तुमें भी धर्मोके नामरूप भेदको उत्पन्न करके ऐसा उपदेश करते हैं कि ज्ञानीके दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है । प्रभेदमें भेद करनेसे इसको व्यवहार कहा गया है । परमार्थते विचारा जाय तो अनन्त पर्यायोंको एक द्रव्य अभेदरूप पिये हुए बैठा है, इस कारण भेद नहीं है । यद्यपि पर्याय भी द्रव्यका ही भेद है, ग्रवस्तु नहीं है, तथापि यहाँ द्रव्यदृष्टिसे अभेदको प्रधान मानकर उपदेश है । प्रभेददृष्टिमें भेदको गोरा करनेसे ही अभेद अच्छी तरह ज्ञात हो सकता है, इस कारण भेदको गौण करके व्यवहार कहा है । तात्पर्य यह है कि भेददृष्टि में निर्विकल्प दशा नही होती और सरागीके जब तक रागादिक दूर नहीं होते, तब तक विकल्प बना रहता है । इस कारण भेदको गोरा करके प्रभेदरूप निविकल्प अनुभव कराया गया है। वीतराग होनेके बाद तो भेदाभेदरूप वस्तुका ज्ञाता हो जाता है वहाँ नयका अबलम्बन हो नहीं रहता । 3
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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