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पूर्व रंग
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सत सूरीणां धर्मधर्मिणां स्वभावतोऽभेदेपि व्यपदेशतो भेदमुत्पाद्य व्यवहारमात्रेपैव ज्ञानिना दर्शनं ज्ञानं चारिश्रमित्युपदेशः । परमार्थतस्त्वेकद्रव्यनिष्पीतानं तपर्यायतयैकं किञ्चिन्मिलितास्वादमभेदमेकस्वभावमनुभवतां न दर्शनं न ज्ञानं न चारित्रं ज्ञायक एवैकः शुद्धः ॥७॥
दिश देशने । पदविवरण — व्यवहारेण तृतीया विभक्ति एकवचन, करणकारक उपदिश्यते कर्मवाच्यकिया लट्लकार अन्य पुरुष एकवचन । ज्ञानिनः षष्ठी एक० । चरित्र - प्र० ए० । दर्शनं प्र० एक० । ज्ञान- प्र० एक० न-अव्यय । अपि अव्यय । ज्ञानं प्र० एक० । न-- अव्यय । चरित्र - प्र० ए० । न- अव्यय । दर्शन - प्र० एक० । ज्ञायक:- प्र० एक० शुद्धः प्रथमा विभक्ति एक
सिद्धांत - ( १ ) ग्रात्मा शुभ प्रशुभ भावोंरूप स्वभावसे नहीं परिणमता । ( २ ) समस्त परपदार्थ व परपदार्थोंका निमित्त पाकर होने वाले विकार ( परभाव ) इनसे भिन्न है यह आत्मस्वरूप, यही इसकी द्रव्यशुद्धि है । ( ३ ) ग्रात्मा अपने में अपनी वृत्तिको करता रहता है । दृष्टि-- १ - उपाधिनिरपेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२१) । २ - परमभावग्राहक द्रव्यार्थिकनय (३०) । ३ - कारककार किभेदक सद्भूतव्यवहारनय (७३)
प्रयोग - पर्यायतः शुभ अशुभ भावरूप परिणति हो वहाँ भी पर्यायकी बातको मौरा करके द्रव्यदृष्टिी मुख्यतासे अपने को अपने में सहज ज्ञानज्योतिमात्र अनुभव करना || ६ || प्रश्न- - क्या श्रात्मा के दर्शन, ज्ञान और चारित्र - इन तीन भावोंसे प्रशुद्धता या सकती है ? उत्तर - - [ज्ञानिनः ] ज्ञानीके [ चरित्रं दर्शनं ज्ञानं ] चारित्र, दर्शन, ज्ञान -- तीन भाव [ व्यवहारेण] व्यवहार द्वारा [ उपदिश्यते] कहे जाते हैं । निश्चयनयसे [ज्ञानं श्रपि न] ज्ञान भी नहीं है। [ चरित्रं न ] चारित्र भी नहीं है और [दर्शनं न ] दर्शन भी नहीं है । ज्ञानी तो एक [ज्ञायकः ] ज्ञायक हो है, इसलिये [ शुद्धः ] शुद्ध कहा गया है ।
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तात्पर्य -- सहजसिद्ध ज्ञायक ग्रात्माका अनुभवपूर्ण परिचय प्रभेददृष्टि से हाँ हाँ पाता है, क्योंकि आत्मा अभेदरूप है ।
टीकार्थ- - इस ज्ञायक ग्राम के बंधपर्यायके निमित्तसे अशुद्धता तो दूर ही रही, इसके दर्शन - ज्ञान चारित्र भी नहीं है । क्योंकि निश्चयनयसे ग्रनन्तधर्मा जो एक धर्मी वस्तु उसको जिसने नहीं जाना, ऐसे निकटवर्ती शिष्य जनको उस अनंतधर्मस्वरूप धर्मके बतलाने वाले स्वगत कितने ही धर्मों द्वारा शिष्य जनोंको उपदेश करते हुए प्राचार्योंका ऐसा कथन है कि धर्म और धर्मीका यद्यपि स्वभावसे प्रभेद है तो भी नामसे भेद होनेके कारण व्यवहारमात्रसे ज्ञानीके दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है । परन्तु परमार्थसे देखा जाय तो एक द्रव्यके द्वारा पिये गए अनन्त पर्यायी रूपतासे एकमेक मिले हुए प्रभेदस्वभाव वस्तुको अनुभव करने वाले