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________________ ---- - - - - - समयसार दर्शनज्ञानचारित्रयत्त्वेनास्याशुद्धत्वमिति चेत् ववहारेणुवदिस्सइ णाणिस्स चरित दसणं णाणं । णवि णाणं ण चरितं दंसणं जाणगों सुद्धो ॥७॥ चारित्र ज्ञान दर्शन, ज्ञायकके सध्यवहारनय कहता। शुद्धस्य शुद्ध लखता, नहिं दर्शन आदि भेव वहां ॥७॥ व्यवहारेणोपदिश्यते ज्ञानिनश्चरित्रं दर्शनं ज्ञानम् । नापि ज्ञानं न चरित्रं न दर्शनं ज्ञायकः शुद्धः ।।७।। प्रास्ता तावद् बंधप्रत्ययात् ज्ञायकस्याशुद्धत्वं, दर्शनज्ञानचारित्राण्येव न विद्यते; यतोह्यनंतधर्मण्येकस्मिन् धर्मिण्यनिष्णातस्यांतेवासिजनस्य तदवबोधविधायिभिः कश्चिद्धमैस्तमनुशा नामसंज्ञ--ववहार, णाणि, चरित्त, सण, णाण, णवि, णाण, ण, चरित्त, ण, दसण, जाणग, सुद्ध । धातुसंज्ञ-उव-दिस प्रेक्षणे दाने च, दंस दर्शनायां, जाण अवबोधने, सुज्झ नर्मल्ये । प्रकृतिशब-व्यवहार, ज्ञानिन्, चरित्र, दर्शन, ज्ञान, न, अपि, ज्ञान, न चरित्र, न, दर्शन ज्ञायक, शुद्ध । मूलधातु-हर हरणे । मेदाप तम्या प्रशुद्ध द्रमाथिकनयके विषय है । शुद्ध द्रव्यको दृष्टि में यह भी पर्यायाथिक ही है इसलिये व्यवहारनय ही है-ऐसा आशय जानना । जिनमतका कथन स्याद्वादरूप है, इससे शुद्धता और प्रशुद्धता दोनों वस्तुके धर्म जानना । अशुद्धनयको सर्वथा असत्यार्थ हो न समझना । जो वस्तुधर्म है, वह वस्तुका सत्त्व है, वह प्रयोजनवश ही हुआ भेद है । निर्विकल्प समाधि पानेके लिये शुद्धनयका प्रधान उपदेश है। अशुद्धनयको प्रसत्यार्थ कहनेसे ऐसा नहीं समझना कि यह वस्तुधर्म सर्वथा ही नहीं, आकाशके फूल की तरह असत् है । ऐसे सर्वचा एकान्त समझनेसे मिश्यात्व पाता है। इसलिये स्याद्वादका शरए लेकर शुद्धनयका आलंबन करना चाहिये, स्वरूपको प्राप्ति होनेके पश्चात् शुद्धनयका भो अवलंबन नहीं रहता । प्रसंगविवरण-अनंतर पूर्व गाथामें प्रतिज्ञापन किया था कि उस एकत्वको मैं दिखाऊँगा सो इस गाथा उसी एकत्वको चर्चा की गई है । तथ्यप्रकाश--(१) यह शायकभाव (प्रात्माका सहज एकत्व स्वरूप) स्वतःसिद्ध प्रनादिनिधन है। (२) यह ज्ञायंकभाव नित्य अंतः प्रकाशमान है । (३) यह ज्ञायकभाव स्पष्ट प्रति भासस्वरूप है । (४) संसारावस्थामें शुभ अशुभ भाव प्रतिफलित होनेपर भी यह उन भावों रूप स्वभावसे नहीं परिणमता है । (५) समस्त पर व परभावोंसे भिन्न यह ज्ञायक है यही इसको शुद्धता है । (६) अन्तरङ्ग हयाकार होनेपर भी ज्ञेय पदार्थोंसे इस झायकका कुछ सम्बन्ध नहीं, कुछ कारकपना नहीं, किन्तु ज्ञायक ही अपनेमें अपने ज्ञानकर्मरूप परिणमता रहता है। (७) भेद किया जानेके कारण गुरगोंका निरखना भी अशुद्ध द्रव्याथिकनय है।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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