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________________ पूर्व रंग १६ भावेभ्यो भिन्नत्वेनोपास्यमानः शुद्ध इत्यभिलप्येत । न चास्य ज्ञेयनिष्ठत्वेन ज्ञायकत्वप्रसिद्धः दाह्यनिष्कनिष्ठदहमस्येवाशुद्धत्वं यतो हि तस्यामवस्थायां झायकत्वेन यो ज्ञातः स स्वरूपप्रकाशनदशायां प्रदीपस्येव कर्तृकर्मणोरनन्यत्वात् हायक एव ॥६॥ अव्यय । प्रमत्त:-प्रथमा एकः । ज्ञायक:-प्र० ए० तु-अव्यय । य:-प्र० एक भाग:-प्र० एकः । एवंअव्यय । भणंति--लट्-अन्यपुरुष बहुवचन | शुद्धं-द्वितीया एक० । ज्ञात:--प्र० ए० | य:-प्र० ए० । सःप्र० ए० । तु-अव्यय । सः-प्र० ए० । च-अव्यय । एव-अव्यय ।।६।। हुए पुण्य-पाएके उत्पन्न करने वाले समस्त अनेकरूप शुभ अशुभ भावके स्वभावसे परिणमन नहीं करता (ज्ञायकभावसे जड़े भावरूप नहीं होता)। इसलिए यह जायकभाष प्रमत्त भी नहीं है और अप्रमत्त भी नहीं है । यही समस्त अन्य द्रव्योंके भावोंसे भिन्न रूपमें सेवित हुआ 'शुद्ध' ऐसा कहा जाता है । और ज्ञेयाकार होनेसे इसका ज्ञायकत्व प्रसिद्ध है तथा दाहने योग्य दाह्म इंधन में रहने वाली अग्निकी तरह ज्ञेयनिष्ठताके कारण ज्ञायकपना प्रसिद्ध होनेसे उस ज्ञेय के द्वारा की हुई भी इस प्रात्माके प्रशुद्धता नहीं है, क्योंकि ज्ञेयाकार अवस्थामें भी ज्ञायकभाव द्वारा जाना गया जो अपना ज्ञायकत्व, वही स्वरूप प्रकाशनकी (जाननेको) अवस्थामें भी शायकरूप ही है शेयरूप नहीं हुमा । क्योंकि प्रभेद विवक्षासे कर्ता तो स्वयं ज्ञायक और कर्म जिसको जाना याने अपना आप ये दोनों एक स्वयं ही है, अन्य नहीं है । जैसे दीपक घटपटादिको प्रकाशित करता है, उनके प्रकाशनेकी अवस्था में भी दीपक ही है, वही अपनी ज्योति रूप लौ के प्रकाशनेको अवस्थामें भी दीपक ही है, कुछ दूसरा नहीं है। भावार्थ-प्रशुद्धता परद्रव्यके संयोगसे आती है। वहाँ भी कोई द्रव्य अन्य द्रव्यरूप नहीं होता, कुछ परद्रव्यके निमित्तसे अवस्था मलिन हो जाती है । सो द्रव्यदृष्टि से हो द्रव्य जो है वह ही है और उसको अवस्था पुद्गल कर्मके निमित्तसे मलिन है, वह पर्याय है। उसकी दृष्टिसे देखा जाय तब मलिन ही दीखता है। और द्रव्यदृष्टिसे देखा जाय, तब ज्ञायकत्व तो जायकत्व ही है, कुछ जड़त्व नहीं हुआ, यह तथ्य द्रव्यदृष्टिकी प्रधानतासे निरखिये । जो प्रमत्त अप्रमत्तका भेद है, वह तो परद्रव्यके संयोगवियोगजनित पर्याय है । यह अशुद्धता द्रव्यदृष्टिमें गौण है, द्रव्यदृष्टि शुद्ध है, इसलिये प्रात्मा ज्ञायक है, इस कारण उसे प्रमत्त व अप्रमत्त नहीं कहा जाता । 'ज्ञायक' ऐसा नाम भी यद्यपि ज्ञेयके जाननेसे कहा जाता है, क्योंकि ज्ञेयका प्रतिबिम्ब जब झलकता है तब वैसा ही अनुभवमें प्राता है, सो यह भी अशुद्धता इसके नहीं कही जा सकती, क्योंकि वहाँ ज्ञेयाकारसदृश ज्ञान ज्ञानमें प्रतिभासित हुआ, ऐसा अपना अपने से अभेदरूप अनुभव हुआ तब उस जाननेरूप क्रियाका कर्ता स्वयं ही है और जिसको जाना सो कर्म भी स्वयं ही है। ऐसे एक ज्ञायकत्व मार प्राप शुद्ध है-यह शुद्धनयका विषय है ।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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