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________________ १८ समयसार कोऽसौ शुद्ध प्रात्मेति चेत् णवि होदि अप्पमत्तो णो पमत्तो जाणो दु जो भावो। एवं भणंति सुद्ध णाश्रो जो सो उ सो वेव ॥६॥ नहिं रागी न विरागी, केवल चैतन्यमात्र शायक यह । निनाम शुद्ध यह ओ, ज्ञात हुमा वह वही शाश्वत ॥६॥ नापि भवल्याप्रमत्तो न प्रमत्तो ज्ञायकस्तु यो भावः । एवं भणंति शुद्धं ज्ञातो यः स तु स चैव ॥६।। यो हि नाम स्वतः सिद्धत्वेनानादिरनंतो नित्योद्योतो विशदज्योनियिक एको भावः स संसारावस्थायामनादिबंधपर्यायनिरूपणया क्षीरोदकवत्कर्मपुद्गल सममेकत्वेपि द्रव्यस्वभावनिरूपण्या दुरंतकषायचक्रोदयवैचित्र्यवशेन प्रवर्तमानानां पुण्यपापनिवर्तकांनामुपात्तवैश्वरूप्यागां शुभाशुभभावानां स्वभावेनापरिणमनात्प्रमत्तोऽप्रमत्तश्च न भवत्येष एवाशेषद्रव्यांतर __नामसंज्ञ--ण, वि, अप्पमत्त, ण, पमत्त, जाणअ, दु. ज, भाव, एवं , सुद्ध, गाअ, ज, त, उ, त, चेष । धातुसंज्ञ-हो सत्तायां, भण' कथने । प्रकृतिशम्व-न, अपि, अप्रमत्त न, ज्ञायक, तु, यत्, भाव, एवं, शुद्ध, ज्ञात, यत्, तत्, तु, तत्, च, एव । मूलधातु---मदी मोहने, ज्ञा अबबोधने, भू सत्तायां शुध शोचे, भण वाचि । पदविवरण--न-अव्यय, अपि-अव्यय । भवति-लट् प्रथम पुरुष एकवचन । अप्रमत्तः-प्रथमा एक० । न प्रयोग--ग्रागम अभ्यास, दार्शनिक बोध, सविनय गुरुसेवा और तत्त्वमननको प्रतिदिन साधना करते हुए सत्याग्रह (स्वभावदृष्टि) व असहयोग (परभावोंसे उपेक्षा) से अपने में अपने सहजस्वरूपके अनुभवनेका पौरुष करना ।।५।। ___ अब ऐसा शुद्ध प्रात्मा कौन है कि जिसका स्वरूप जानना चाहिये ? ऐसे प्रश्नका उत्तररूप गाथा सूत्र कहते हैं--[तु यः] अहो जो [ज्ञाएकः भावः] ज्ञायक भाष है वह [अप्रमत्तः अपि] अप्रमत्त भी [न] नहीं है और [न प्रमत्तः] न प्रमत्त ही है [एवं] इस तरह [शुद्ध] उसे शुद्ध [भरगति ] कहते हैं [च यः] और जो [जातः] ज्ञायक रूपसे ज्ञात हुप्रा [सः] बह [स एव तु] वही है, अन्य कोई नहीं । तात्पर्य-अन्तस्तत्त्व स्वसम्वेद्य सहज प्रतिभासस्वरूप है। टोकार्थ---जो एक जायक भाव है, वह अपने प्रापसे ही सिद्ध होनेसे (किसीसे उत्पन्न नहीं होनेसे) अनादिसत्तारूप है और कभी विनाशको प्राम न होनेसे अनन्त है, नित्य उद्योत रूप है, स्पष्ट प्रकाशमान ज्योति है । वह संसारको अवस्थामें अनादिबंधपर्यायको निरूपणा (अपेक्षा) से दूध जलकी तरह कर्मरूप पुद्गलद्रव्य सहित होनेपर भी द्रव्यके स्वभावको अपेक्षा से देखा जाय, तब तो जिसका मिटना कठिन है, ऐसे कषायोंके उदयकी विचित्रतासे प्रवृत्त
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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