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________________ - - - - पूर्व रंग अनवरतस्यंदिसुन्दरानन्दमुद्रितामंदसंविदात्मकस्वसंवेदनजन्मा च यः कश्चनापि ममात्मनः स्वोविभवस्तेन समस्तेनाप्ययं तमेकत्वविभक्तमात्मानं दर्शयेहमिति बद्धव्यवसायोस्मि । किंतु यदि दर्शयेयं तदा स्वयमेव स्वानुभव प्रत्यक्षेण परीक्ष्य प्रमाणीकर्तव्यं । यदि तु स्खलेयं तदा तु न छलग्रहणजागरूकैभवितव्यम् ॥५॥ पदविवरण-त-द्वितीया एकवचन । एकत्वविभवत--द्वि० ए० । दर्शये-णिजन्तु लट् लकार उत्तम पुरुष एकवचन । अहं-प्रथमा ए० । स्वविभवेन-४० ए० । यदि-अध्यय । दर्शयेयं-लिड. लकार उत्तम पुरुष एकवचन । प्रमाण-प्र० ए० । स्खलेय-लिङ् लकार उत्तम० एक० । छल-प्र० ए० । गृहीतव्यम्-प्रथमा एकवचन, क्रिया ॥५॥ लाता हूं । यदि दिखला दं तो स्वयमेव अपने अनुभव प्रत्यक्षसे परीक्षा करके प्रमाण करना, यदि चूक जाऊँ तो छल (दोष) ग्रहण करने में जागरूक नहीं रहना । भावार्थ-प्राचार्य आगमका अध्ययन, युक्तिका अवलम्बन, पगपर गुरुका उपदेश पाना और स्वसंवेदन---इन चार उपायोंसे उत्पन्न हुए अपने ज्ञानके वैभवसे एकत्वविभक्त शुद्ध प्रात्माका स्वरूप दिखलाते हैं । उसे सुनकर हे श्रोतामो, अपने स्त्रसम्वेदन प्रत्यक्षसे प्रमाण करना, कहीं समझमें न आवे तो छल न मानना । प्रात्मस्वरूपके जाननेका अमोघ उपाय अनुभव है, इसोसे शुद्ध स्वरूपका निश्चय करना । प्रसंगविवरण-प्रात्माका एकत्व लोगोंको असुलभ है यह बात अनन्तर पूर्व माथामें कही गई थी । सो एकत्वका लाभ असुलभ तो है, किन्तु प्रत्यावश्यक है । एकत्वके लाभ बिना मोक्षमार्ग मिलता ही नहीं है, इसी कारण आचार्यदेव उस एकत्वको दिखानेका इस गाथामें संकल्प कर रहे हैं और लोगोंको एकत्व समझने की उमंग दिला रहे हैं। तथ्यप्रकाश-(१) ग्रन्थकार आचार्यदेवने आगम शास्त्रोंका विपुल अध्ययन मनन किया था । (२) दर्शनशास्त्रके प्रकाण्ड विद्वान होनेसे निस्तुष युक्तियोंसे तत्त्वसिद्धिको ग्रन्थकारमें पूर्ण क्षमता थी। (३) ज्ञाननिधान पर अपर गुरुकी विनय सेवाके प्रसादसे ग्रन्थकारको शुद्धात्मतत्त्वका अनुशासन मिला था । (४) प्राचार्यदेवने स्वयं स्वसंवेदन प्राप्त किया था। (५) महोपदेश सुननेपर भी श्रोता अपने अनुभवप्रत्यक्षसे परीक्षा करके प्रमाण किया करता है। सिद्धान्त-(१) स्वानुभवप्रत्य. से प्रमाण माननेकी बात सही होनेपर भी स्वपरो. पग्रहका व्यबहार (कथन) चलता ही है उसका उद्देश्य निमित्त व प्रयोजनको दिखाना मात्र दृष्टि-१- असंश्लिष्ट स्वजात्युपचरित असद्भूतव्यवहार (१२४) ।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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