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समयसार
श्रात्मानं जानाति स श्रुतकेवलीत्यायाति स तु परमार्थं एव । एवं ज्ञानज्ञानिनौ भेदेन व्यपदिशता व्यवहारेणापि परमार्थमात्रमेव प्रतिपाद्यते न किंचिदप्यतिरिक्तं । श्रथ च यः श्रुतेन केवलं शुद्धमात्मानं जानाति स श्रुतकेवलीति परमार्थस्य प्रतिपादयितुमशक्यत्वाद्यः श्रुतज्ञानं सर्वं जानाति स श्रुतकेवलीति व्यवहारः परमार्थप्रतिपादकत्वेनात्मानं प्रतिष्ठापयति ॥ १०॥
श्रुतकेवलिम् तत् । मूलधातु-- श्रवणे | अभिगम्लृ गतौ, अत सातत्यगमने ब्रूत्र व्यक्तायां वाचि, ज्ञा अवबोधने । पदविवरण - यः - प्रथमा ए० । हि-अव्यय । श्रुतेन तृ० ए० । अभिगच्छति लट् अन्य० एक० । आत्मानं द्वि० ए० । इमम् द्वि० एकवचन । तु अव्यय । केवल द्वि० ए० । शुद्ध द्वि० ए० । तं द्वितीया एक० कर्मकारक । श्रुतकेवलिनं द्वितीया एकवचन कर्मविशेषण । भणति लट् वर्तमान, अन्य पुरुष बहु० । (२) व्यवहार परमार्थके प्रतिबोधका प्रयोजक है । (३) परमभावदर्शी पुरुषोंको व्यवहारनय व व्यवहार अनुसरणीय नहीं होता ।
दृष्टि - १ - अनुपचरित परमशुद्ध सद्भूतव्यवहार व उपचारित परमशुद्ध सद्भूतव्यवहार (६६०७०) २ - भेदकल्पनानिरपेक्ष शुद्ध द्रव्य प्रतिपादक व्यवहार (८०) । ३ - शुद्धमय (४६) ।
प्रयोग – हम अपने आत्माकी सहजशक्तियोंसे अपने श्रात्मस्वरूपका परिचय करके शक्तिभेदके विकल्पको त्यागकर अपने में विश्राम करें और चिब्रह्मप्रकाशका अनुभव करें ||८|| अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि व्यवहारनय परमार्थका प्रतिपादक कैसे है ? उसके उत्तर में गाथा सूत्र कहते हैं - [ यः ] जो जीव [हि] निश्चयतः [श्रुतेन ] श्रुतज्ञान से [तु इमं ] इस अनुभव गोचर [ केवलं शुद्ध ] केवल एक शुद्ध [ श्रात्मानं ] श्रात्माको [ श्रभिगच्छति ] सम्मुख हुना जानता है [तं] उसे [लोकप्रदीपकराः ] लोकको प्रकाश करने वाले [ ऋषयः ] ऋषीश्वर [ श्रुतकेवलिनं] श्रुतकेवली [भरति ] कहते हैं। [यः ] जो जीव [ सर्व ] सब [ श्रुतज्ञानं ] श्रुतज्ञान को [ जानाति ] जानता है [तं] उसे [जिना:] जिनदेव [ श्रुतकेबलिनं ] श्रुतके वली [श्राहुः] कहते हैं [ यस्मात् ] क्योंकि [ सर्व ज्ञानं ] सब ज्ञान [ श्रात्मा] श्रात्मा ही है [ तस्मात् ] इस कारण [ श्रुतकेवली ] वह श्रुतकेवली है ।
तात्पर्य - परमार्थतः आत्मा क्या जानता है इसका प्रतिपादन बाह्य ज्ञेयोंके निर्देशसे हो पाता है ।
टीकार्थ - जो श्रुतज्ञान से केवल शुद्ध आत्माको जानता है वह श्रुतकेवलो है, यह तो परमार्थ है, और जो सब श्रुतज्ञानको जानता है वह श्रुतकेवली है यह व्यवहार है । अब यहाँ विचारये कि यहां निरूपण किया जाने वाला सब ही ज्ञान श्रात्मा है कि अनात्मा ? उनमें से अनात्मा कहना तो ठीक नहीं है, क्योंकि जड़रूप अनात्मा श्राकाशादि पांच द्रव्य हैं उनका