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________________ २६ समयसार श्रात्मानं जानाति स श्रुतकेवलीत्यायाति स तु परमार्थं एव । एवं ज्ञानज्ञानिनौ भेदेन व्यपदिशता व्यवहारेणापि परमार्थमात्रमेव प्रतिपाद्यते न किंचिदप्यतिरिक्तं । श्रथ च यः श्रुतेन केवलं शुद्धमात्मानं जानाति स श्रुतकेवलीति परमार्थस्य प्रतिपादयितुमशक्यत्वाद्यः श्रुतज्ञानं सर्वं जानाति स श्रुतकेवलीति व्यवहारः परमार्थप्रतिपादकत्वेनात्मानं प्रतिष्ठापयति ॥ १०॥ श्रुतकेवलिम् तत् । मूलधातु-- श्रवणे | अभिगम्लृ गतौ, अत सातत्यगमने ब्रूत्र व्यक्तायां वाचि, ज्ञा अवबोधने । पदविवरण - यः - प्रथमा ए० । हि-अव्यय । श्रुतेन तृ० ए० । अभिगच्छति लट् अन्य० एक० । आत्मानं द्वि० ए० । इमम् द्वि० एकवचन । तु अव्यय । केवल द्वि० ए० । शुद्ध द्वि० ए० । तं द्वितीया एक० कर्मकारक । श्रुतकेवलिनं द्वितीया एकवचन कर्मविशेषण । भणति लट् वर्तमान, अन्य पुरुष बहु० । (२) व्यवहार परमार्थके प्रतिबोधका प्रयोजक है । (३) परमभावदर्शी पुरुषोंको व्यवहारनय व व्यवहार अनुसरणीय नहीं होता । दृष्टि - १ - अनुपचरित परमशुद्ध सद्भूतव्यवहार व उपचारित परमशुद्ध सद्भूतव्यवहार (६६०७०) २ - भेदकल्पनानिरपेक्ष शुद्ध द्रव्य प्रतिपादक व्यवहार (८०) । ३ - शुद्धमय (४६) । प्रयोग – हम अपने आत्माकी सहजशक्तियोंसे अपने श्रात्मस्वरूपका परिचय करके शक्तिभेदके विकल्पको त्यागकर अपने में विश्राम करें और चिब्रह्मप्रकाशका अनुभव करें ||८|| अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि व्यवहारनय परमार्थका प्रतिपादक कैसे है ? उसके उत्तर में गाथा सूत्र कहते हैं - [ यः ] जो जीव [हि] निश्चयतः [श्रुतेन ] श्रुतज्ञान से [तु इमं ] इस अनुभव गोचर [ केवलं शुद्ध ] केवल एक शुद्ध [ श्रात्मानं ] श्रात्माको [ श्रभिगच्छति ] सम्मुख हुना जानता है [तं] उसे [लोकप्रदीपकराः ] लोकको प्रकाश करने वाले [ ऋषयः ] ऋषीश्वर [ श्रुतकेवलिनं] श्रुतकेवली [भरति ] कहते हैं। [यः ] जो जीव [ सर्व ] सब [ श्रुतज्ञानं ] श्रुतज्ञान को [ जानाति ] जानता है [तं] उसे [जिना:] जिनदेव [ श्रुतकेबलिनं ] श्रुतके वली [श्राहुः] कहते हैं [ यस्मात् ] क्योंकि [ सर्व ज्ञानं ] सब ज्ञान [ श्रात्मा] श्रात्मा ही है [ तस्मात् ] इस कारण [ श्रुतकेवली ] वह श्रुतकेवली है । तात्पर्य - परमार्थतः आत्मा क्या जानता है इसका प्रतिपादन बाह्य ज्ञेयोंके निर्देशसे हो पाता है । टीकार्थ - जो श्रुतज्ञान से केवल शुद्ध आत्माको जानता है वह श्रुतकेवलो है, यह तो परमार्थ है, और जो सब श्रुतज्ञानको जानता है वह श्रुतकेवली है यह व्यवहार है । अब यहाँ विचारये कि यहां निरूपण किया जाने वाला सब ही ज्ञान श्रात्मा है कि अनात्मा ? उनमें से अनात्मा कहना तो ठीक नहीं है, क्योंकि जड़रूप अनात्मा श्राकाशादि पांच द्रव्य हैं उनका
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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