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________________ पूर्व रंग कुतो व्यवहारनयो नानुसतव्य इति चेत् - ववहारोऽभूयत्थो भूयत्थो देसिदो दु मुद्धणो । भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्टी हवइ जीवो ॥११॥ व्यवहार प्रसूतार्य रु, भूतार्थ शुद्धनय कहा गया है । भूतार्य प्राधयी ही, सम्यग्दृष्टी पुरुष होता ।।११।। व्यवहारोऽभूतार्थो भूतार्थो दर्शितस्तु शुद्धनयः । भूतार्थमाश्रितः खलु सम्यग्दृष्टिर्भवति जीवः ॥११॥ व्यवहारनयो हि सर्व एवाभूतार्थत्वादभूतमर्थं प्रद्योतयति । शुद्धनय एक एव भूतार्थस्वाद् भूतमर्थं प्रद्योतयति । तथाहि-यथा प्रबलपंकसंवलनतिरोहितसह्जकाच्छभावस्य पयसोऽनुभवितारः पुरुषाः पंकपयसोविवेकमकुर्वन्तो बह्वोऽनच्छमेव तदनुभवति । केचित्तु स्वकरविकीर्णकतकनिपातमात्रोपजनितपंकपयसोविवेकतया स्वपुरुषाकाराविर्भावितसहजैकाच्छभावत्वादच्छमेव लोकप्रदीपकरा:-प्रथमा० एक० कर्ताकारक । यः-प्रथमा एकवचन सर्वनाम कर्ता । श्रुतज्ञान-द्वितीया। एक० कर्मः । सर्व-द्वि० ए० कर्मविशेषण । जानाति-लट् वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन । श्रुतकेवलिनद्वि० एकवचन । तं-द्वि० ए० कर्म । आहुः-लट् वर्तमान अन्य० बहुवचन। जिना:-प्रथमा बहु० । ज्ञान-प्र० ए. । आत्मा--प्र० एक० । सर्व-प्र० ए० । यस्मात्-पंचमी० एक० । श्रुतकेवली-प्रथमा० एक० कर्ताकारक । तस्मात्-पंचमी विभक्ति एकवचन ॥६-१०।। ज्ञानके साथ तादात्म्य नहीं है । इसलिए अन्य उपायका अभाव होनेसे ज्ञान प्रात्मा ही है ऐसा लुथ्य सिद्ध होता । श्रु तज्ञान भी आत्मा ही है ऐसा होनेपर यह सिद्ध हुमा कि जो प्रात्माको जानता है वह श्रु तकेवली है और वही परमार्थ है । इस तरह ज्ञान और ज्ञानोको भेदसे कहने वाले व्यवहारसे भी परमार्थमात्र ही कहा जाता है, उससे अधिक कुछ भी नहीं । अथवा जो श्रु तज्ञानसे केवल शुद्ध प्रात्माको जानता है वह श्रु त केवली है, इस परमार्थका निश्चयनयके द्वारा कहना अशक्य है, इसलिए जो समस्त श्रु तज्ञानको जानता है, वह व तकेवली हैं, ऐसा बताने वाला व्यवहारनय परमार्थका प्रतिपादक होनेके कारण अपनेको प्रतिष्ठित कराता है । भावार्थ-जो द्वादशाङ्गके जाननरूप परिणत मात्र आत्माको जानता है, वह श्रतकेवली है यह तो परमार्थका कथन है और वही सब द्वादशाङ्ग शास्त्रज्ञानको जानता है यह कहना व्यवहारकथन है । वस्तुविषयक ज्ञान आत्मा है ऐसा जिसने ज्ञानको जाना उसने पात्मा को हो जाना यही परमार्थ है । इस प्रकार ज्ञान और ज्ञानीके भेद कहने वाले व्यवहारने भी परमार्थ हो कहा, अन्य कुछ नहीं कहा। यहाँ ऐसा है कि परमार्थ का विषय तो कथंचित वचनगोचर नहीं भी है; इसलिए व्यवहारनय ही परमार्थ प्रात्माका प्रतिपादन करता है।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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