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________________ समयसार तदनुभवंति । तथा प्रबलकर्मसंवलनतिरोहितसहजकज्ञायकस्यात्मनोऽनुभवितारः पुरुषा प्रात्मकर्मणोविवेकमकुर्वन्तो व्यवहारबिमोहितहृदयाः प्रद्योतमानभाववैश्वरूप्यं तमनुभदंति । भूतार्थदशिनस्तु स्वमतिनिपातितशुद्धनधानुबोधमात्रोपजनितात्मकर्मविवेकतयां स्वपुरुषाकारानि वित __ नामसंज्ञ--बबहार, अभूयत्य, भूयंत्थ, देसिद, हु, सुद्धणय, भूयस्थ, अस्सिद, खलु, सम्माइट्टि जीव । धातुसंज्ञ-वि-अव हर हरणे, भव सत्तायां, सुज्भ नर्मल्ये, ने प्रापणे, अस्स आश्रयणे, हव सत्तायां, जीव प्रागधारणे, समअंच पूजायां । प्रकृतिशब्द-व्यवहार, अभूतार्थ, भूतार्थ, देशित, खलु, शुद्धनग, भूतार्थ, आश्रित, खलु, सम्यग्दृष्टि, जीव । मूलधातु-वि-अब-इ हरणे । भू सत्तायां । आ-विज्ञ सेवायां । पदविष प्रसंगविधरण- अनन्तर पूर्व गाथामें कहा गया था कि व्यवहारके बिना परमार्थका समझाया जाना अशक्य है, अतः व्यवहार परमार्थका प्रतिपादक है । सो यहाँ उसके विवरण की जिज्ञासाका समाधान है कि व्यवहार परमार्थका प्रतिपादक कैसे है ? तथ्यप्रकाश-(१) परमार्थतः प्रात्मा अपनेको (जेयाकारपरिणत अपनेको) ही जानता है. । (२) परमार्थतः प्रात्मा किसे जानता है यह सीधा कहना अशक्य है सो प्रात्मा जिस समय जिस वस्तुके विषयमें जानकारी कर रहा है उस वस्तुको जानता है यों कहकर समझाया जाता है । (३) अन्य दृष्टान्तसे इस तथ्यको समझे जैसे घटको जानने वाला प्रात्मा परमार्थसे क्या जान रहा है ? परमार्थसे वह घटके विषयके ज्ञानरूपसे परिणत मात्र (शुद्ध) अपने प्रात्मा को जान रहा है, किन्तु परमार्थतः वह किसे जान रहा है यह सीधा कहना अशक्य है सो वह घटको जान रहा है यों कहकर समझाया जाता है । (४) परवस्तुको जाननेकी बात कहना व्यवहार है और उस प्रकारके ज्ञानसे परिणत मात्र (शुद्ध) प्रात्माको जानना यह परमार्थ है । (५) इस प्रकरणमें दृष्टान्त श्रुतकेवलोका दिया है जो द्वादशाङ्ग श्रुतको जानता है वह श्रुतकेवली परमार्थसे किसको जानता है ? वह परमार्थसे द्वादशांग श्रुतके विषयके ज्ञानसे परिणत मात्र (शुद्ध) पास्माको जानता है, किन्तु परमार्थतः यह किसे जानता यह सीधा कहना अशक्य है सो वह द्वादशाङ्ग श्रतको जानता है यों व्यवहारसे समझाया जाता है । (६) अन्तर्दृष्टिसे व्यवहार व परमार्थ देखिये-- तकेवली द्वादशाङ्गधुत ज्ञानको जानता है । यहाँ ज्ञान ज्ञानीका भेद किया वह व्यवहार है, भेद न कर प्रात्मा ही लक्षित हो वह परमार्थ है । (७) अन्तर्दृष्टि का दूसरा दृष्टान्त-घटज्ञानी व्यवहारसे घटज्ञानको जानता है, परमार्थतः वहां प्रात्माको जानता है । यहां शान ज्ञानीका भेद किया वह व्यवहार है, भेद न कर वहां प्रात्मा हो लक्षित हो वह परमार्थ है। सिद्धान्त-(१) परमार्थतः प्रात्मा प्रात्माको जानता है। (२) व्यवहारतः प्रात्मा परवस्तुको जानता है
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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