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________________ २६ पूर्व रंग सहजै कज्ञायकस्वभावत्वात् प्रद्योतमानकज्ञायकभावं तमनुभवति । तदत्र ये भूतार्थमाश्रयंति त एव सम्यक् पश्यंतः सम्यग्दृष्टयो भवंति न पुनरन्ये कतकस्थानीयत्वाच्छुद्धनयस्यातः प्रत्यगात्मदर्शिभिर्व्यवहारयो नानुसर्त्तव्यः । श्रथ च केषांचित्कदाचित्सोपि प्रयोजनवान् । यतः रण - व्यवहारः प्रथमा विभक्ति एकवचन कर्ताकारक, अभूतार्थ: प्रथमा विभक्ति एकवचन कर्तृविशेषण, भूतार्थ: प्रथमा एक०, देशितः- प्रथमा एकवचन दन्त क्रिया खलु-अव्यय, शुद्धयः--प्रथमा० एक०, भूतार्थ- द्वितीया एकवचन, आश्रितः प्रथमा एकवचन, खलु -अध्यय, सम्यग्दृष्टिः प्रथमा विभक्ति एकवचन, भवति लट् वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन, जीवः प्रथमा विभक्ति एकवचन ॥११॥ दृष्टि - १ - कारककारकिभेदक सद्भूतव्यवहार (७३) । २ - स्वाभाविक उपचरित स्वभाव व्यवहार, परकर्तृत्व व्यवहार (१०५, १२६) । प्रयोग - व्यवहारसे अपनी सर्व कलायें जानकर अन्तर्दृष्टिसे परमार्थ सहज ज्ञानमात्र अपने आत्माको अनुभवना चाहिये ॥६- १० ॥ अब प्रश्न उठता है कि पहले कहा था कि व्यवहारको अंगीकार नहीं करना, परन्तु जब यह परमार्थका कहने वाला है तो ऐसे व्यवहारको क्यों नहीं अंगीकार करना चाहिये ? इसके उत्तर में गाथासूत्र कहते हैं -- [ व्यवहारः ] व्यवहारनय [ श्रभूतार्थः] प्रभूतार्थ है [तु] और [ शुद्धयः] शुद्धनय [ भूतार्थः ] भूतार्थ है ऐसा [दशितः ] ऋषीश्वरोंने दिखलाया है । [भूतार्थं ] भूतार्थके [ श्राश्रितः] माश्रयको प्राप्त [जोवः ] जीव [ खलु ] निश्चयतः [ सम्य] सम्यग्दृष्टि [भवति ] है । तात्पर्य - सहज स्वयं सिद्ध अन्तस्तत्व भूतार्थ है, अन्य सब प्रभूतार्थ है । टीकार्थ – समस्त व्यवहारनय प्रभूतार्थं होनेसे प्रभूतार्थको प्रकट करता है और केवल शुद्धtय ही भूतार्थ होनेके कारण सहज सत्यभूत अर्थको प्रकट करता है। जैसे प्रबल कीचड़ के मिलने से जिसका निर्मल स्वभाव श्राच्छादित हो गया है, ऐसे जलके प्रनुभव करने वाले बहुत से पुरुष तो ऐसे हैं कि जल और कीचड़का भेद न करके उस मैंले जलका ही अनुभव करते हैं और कोई पुरुष अपने हाथसे निर्मली औषधि डालकर कर्दम और जलको भिन्न-भिन्न करने से जिसमें अपना पुरुषाकार दिखलाई दे ऐसे स्वाभाविक निर्मल स्वभावरूप जलको पोनेका अनुभव करते हैं । उसी प्रकार प्रबल कर्मके संयोग होनेसे जिसका स्वाभाविक एक ज्ञायकभाव आच्छादित हो गया है, ऐसे आत्मा के अनुभव करने वाले पुरुष श्रात्मा और कर्मका भेद न करके व्यवहार में विमोहितचित्त होते हुए, जिसके भावोंका अनेकरूपपना प्रकट है ऐसे अशुद्ध श्रात्माका ही अनुभव करते हैं और शुद्धनयके देखने वाले जीव अपनी बुद्धिसे प्रयुक्त शुद्धनयके अनुसार ज्ञानमात्रसे उत्पन्न हुए श्रात्मा और कर्मकी विवेक-बुद्धिसे अपने पुरुषाकाररूप स्वरूप
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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