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________________ कहुं कर्माधिकार सम्यकस्वपरविवेकेनात्यंतोदितविविक्तात्मख्यातित्याधस्माद् ज्ञानमय एव भावः स्यात् तस्मिस्तु सति स्वपरयो नात्वविज्ञानेन ज्ञानमात्रे स्वस्मिन्सुनिविष्टः पराभ्यां रागद्वेषाभ्यां पृथग्भूततया स्वरसत एव निवृत्ताहंकारः स्वयं किल केवलं जानात्येव न रज्यते न च रुष्यति तस्माद् ज्ञानमयभावाद् ज्ञानी परी रागद्वेषापात्मानमकुर्वन्न करोति कर्मारिण। ज्ञानमय एव भाव: कुतो भवेद् ज्ञानिनो न पुनरत्यः । अज्ञानमयः सर्वः कुतोयमशानिनो नान्यः ॥६६॥ ॥ १२७ ॥ तु, कर्मन् । मूलपातु-ज्ञा अवबोधने, डुकृा करणे। पदविवरण–अज्ञानमयः, भाव:-प्रथमा एकवचन । अशानिनः-षष्ठी एक० । करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया। तेन-तृतीया एक० । कर्माणिद्वितीया बहु० । ज्ञानमय:-प्र० ए०। ज्ञानिन:-षष्ठी एकवचन । तु, न-अव्यय । करोति-वर्तमान अन्य एकवचन । तस्मात्-पंचमी एकवचन हेत्वर्थे । तु-अव्यय । कर्माणि-द्वितीया बहुवचन ।।१२७॥ मशानमय भाव होता है । ४-- अशा गमाव होनेपर पत्यानरपसका प्रध्यास होता है । ५-स्वपरमें एकत्वका प्रध्यास होनेसे ज्ञानमात्र स्वसे भ्रष्ट रहता है । ६-शानमात्र स्वसे भ्रष्ट रहनेसे परद्रव्यस्वरूप रागद्वेषके साथ एकरूप अनुभव होता है । ७- रागद्वेष प्रकृति में एकरूप अनुभव होनेसे अहंकार विकल्प बनता है। ८- अहंकार विकल्प बननेसे अज्ञानी अपने प्रात्मा को परद्रव्यस्वरूप रागद्वेषमय करता हुमा कौको करता है। - ज्ञानोके सम्यक् स्व-पर विवेक होता है । १०- स्व-परविवेक होनेसे एकत्वविभक्त प्रात्माकी दृष्टि रहती है। ११-- एकत्वविभक्त प्रात्माकी दृष्टि रहनेसे ज्ञानमय भाव होता है । १२- ज्ञानमय भाव होनेपर स्वपरकी भिन्नताका बोध संस्कृत रहता है । १३- स्वपरको भिन्नताका बोध संस्कृत रहनेसे ज्ञानमात्र स्वमें ठहरना होता है। १४- ज्ञानमात्र स्वमें ठहरना होनेसे परद्रव्यस्वरूप रागद्वेषसे पृथक् रहनेसे स्वरसतः ही उनमें अहंकार नहीं होता है, अहंकार निवृत्त हो जाता है । १६परद्रव्यस्वरूप राग द्वेषमें अहंकार नष्ट हो जानेसे ज्ञानी मात्र जानता ही है वह रागद्वेषरूप अपनेको नहीं कर सकता । १७- रागद्वेषरूप न होनेसे ज्ञानी कोको नहीं करता है। सिदान्त-१- भज्ञानीके प्रज्ञानमय भाव होता है। २- प्रशानमयभावका निमित्त पाकर पुद्गलकारिणद्रव्यमें कर्मत्वका प्रास्रव होता है। ३- ज्ञानीके ज्ञानमयभाव होता है । ४-मानमयभावका निमित्त पाकर कार्माणद्रम्पमें संवरत्व होता है। दृष्टि-१-अशुद्धनिश्चयनय (४७) । २-- उपाधिसापेक्ष अशुद्धद्रव्याथिकनय (२४) । ३-शुद्धनिश्चयनय (१६), प्रपूर्ण शुद्धनिश्चयनय (४६ब)। ४- शुढभावनापेक्ष शुदध्यापिक नय (२४ब)। प्रयोग--ज्ञानमय भाव होनेपर बन्धन नहीं होता तथा भव-भयके संचित कर्म भी प्रमना कर्मस्त्र तज देते हैं यह जानकर अविकार ज्ञानस्वरूपकी उपासनारूप ज्ञानमय भावना
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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