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पुण्यपापाधिकार
२७७ किलात्माऽरागो ज्ञानी स्वस्थ बंधाय उपसप्र्पती मनोरमाममनोरमां वा सर्वामपि कर्मप्रकृति तत्त्वत: कुत्सितशीला विज्ञाय तया सह रागसंसगौं प्रतिषेधयति ॥१४८-१४६ ।। प्र० ए० । कुत्सितशील, जन-द्वि० ए० । विज्ञाय-असमाप्तिकी क्रिया। वर्जयति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचनं । तेन-तृतीया एक० । समक-अव्यय । संसर्ग, रागकरणं, कर्मप्रकृतिशीलस्वभावं, कुत्सित-द्वितीया एकवचन । ज्ञात्वा असमाप्तिकी क्रिया । वर्जयंति, परिहरति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया। तत्संसर्ग-द्वि० ए० । स्वभावरत:-प्रथमा बहुवचन ।। १४८-१४६ ॥ .
प्रसंगविवरण-प्रनंतरपूर्व गाथामें बताया था कि पुण्य-पाप दोनोंका राग संसर्ग निषिद्ध है । अब इसी तथ्यका दृष्टान्तपूर्वक समर्थन इस गाथायुगलमें किया गया है ।
__ तथ्यप्रकाश--१-सुशील पुरुष विज्ञात कुशीलके साथ राग व संसर्ग नहीं करता चाहे वह कितना ही मनोरम हो । २- प्रात्मस्वभावचिक पुरुष कुशील शुभ अंशुभ कर्मके साथ राग व संसर्ग नहीं करता, चाहे वह कर्म कितना ही सुहावना हो । ३- शुभ अशुभ सभी कर्मों का सान्निध्य बन्धके लिये ही होता है।
.. सिद्धान्त-१- राग व संसर्गका निमित्त पाकर पर वस्तु बन्धनरूप हो जाती है। २-शुभ प्रशभ सभी कर्म कर्मत्व परिणामसे कल्माषित हैं।
हलि-१-उपाधिसापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (५३) । २- प्रशद्धनिश्चयनय (४७)।
प्रयोग-सभी कम व कर्मफलोंको स्वभावविरुद्ध जानकर उनसे उपेक्षा करके निष्कर्म सहज ज्ञायकभावमय अन्तस्तत्त्वको दृष्टि बनाये रहनेका पौरुष करना ॥१४८-१४६।।
अब कहते हैं कि सभी कर्मका निषेध किया है तो मुनि किसके प्राश्रय मुनिपद पाल सकेंगे ? उसके निर्वाहका काव्य कहते हैं-निषिद्ध इत्यादि । अर्थ---शुभ तथा अशुभ प्राचरणरूप सभी कर्म निषिद्ध होनेपर क्रियाकर्मरहित निवृत्ति अवस्था प्रवृत्ति करते हुए मुनि अशरण नहीं है । निवृत्ति अवस्था होनेपर इन मुनियोंके ज्ञानमें ज्ञान का ही आचरण करना जो हो रहा है वह शरण है । वे मुनि उस ज्ञान में लीन हुए परम अमृतको भोगते हैं।
भावार्थ-सब कर्मका त्याग होनेसे ज्ञानका ज्ञानमें रम जाना यह बहुत बड़ा शरण है, उस ज्ञान में लीन होनेसे सब प्राकुलतामोंसे रहित परमानन्दका सभ होता है । इसका स्वाद ज्ञानी ही जानता है । अज्ञानी जीव कर्मको ही सर्वस्व जानकर उसमें लीन हो जाता है, वह ज्ञानानन्दका स्वाद नहीं जानता ।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें दृष्टान्तपूर्वक शुभ अशुभ दोनों कर्मोको प्रतिषेध्य बताया गया था। अब इस माथामें सिद्धान्त द्वारा कर्मबन्धहेतुभूत दोनों कोंकी प्रतिषेध्यता सिद्ध की है।