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समयसार अयोभय कर्मबंधहेतु प्रतिषेध्यं चागमेन साधयति
रत्तो बंधदि कम्म मुचदि जीवो विरागसंपत्तो । एसो जिणोवदेसों तह्मा कम्मेसु मा रज्ज ॥१५०॥
रागी विधिको बांधे, छोड़ विधिको विराग विज्ञानी।।
यह भागवत वचन है, इससे विधिमें न राग करो ॥१५॥ रक्तो बध्नाति कर्म मुच्यते जीवो विरागसम्प्राप्तः । एष जिनोपदेशः तस्मात् कर्मसु मा रज्यस्व ॥१५०||
___ यः खलु रक्तोऽवश्यमेव कर्म बनीयात विरक्त एव मुच्येतेत्ययमागमः स सामान्येन रक्तत्वनिमित्तत्वाच्छुभमशुभमुभयं कर्माविशेषेण बंधहेतुं साधयति तदुभयमपि कर्म प्रतिषेधयति च। कर्म सर्वमपि सर्वविदो यबंधसाधनमुशन्त्यधिशेषात् । तेन सर्वमपि तत्प्रतिषिद्धं ज्ञानमेव विहितं शिवहेतुः ॥१०३।। निषिद्धे सर्वस्मिन् सुकृतदुरिते कर्मणि किल, प्रवृत्ते नष्कर्ये न खलु मुनयः संत्यशरणा: । सदा ज्ञाने ज्ञानं प्रतिचरितमेषां हि शरणं, स्वयं विन्दन्त्येते परमममृतं तत्र निरताः ॥१०४।। ।।१५०।।
प्राकृतशब-रत्त, कम्म, जीव, विरागसंपत्त, एत. जिणोवदेस, त, कम्म, मा । प्राकृतधातु-रज्ज रागे, बंध बंधने, मुंच त्यागे। प्रकृतिशब्द-रक्त, कर्मन्, जीव, विरागसंप्राप्त, एतत्, जिनोपदेश, तत्, कमन्, मा। मूलधातु-रन्ज रागे, बन्ध बन्धने, डुकृञ् करणे, मुचल मोक्षणे तुदादि, सम्-प्र-आपल प्रापणे, जि जये अभिभवे च भ्यादि । पदविवरण-रक्त:-प्रथमा एकवचन । बध्नाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । कर्म-द्वितीया एक० 1 मुच्यते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन भावकर्मप्रक्रिया क्रिया। विरागसंप्राप्तः, एषः, जिनोपदेशः--प्रथमा एकः । तस्मात-पंचमी एकवचन हेत्वर्थे । कर्मसु-सप्तमी बहु० । माअव्यय । रज्यस्व-आज्ञायां लोट् मध्यम पुरुष एकवचन क्रिया ।। १५० ॥
तथ्यप्रकाश-(१) जो रागादिमें रक्त है उसके संसारविषयक कर्मबन्धन होता है। (२) जो रागादिसे विरक्त होकर भी कर्मविपाकवश रागी बनता है उसके शरीरविषयक कुछ काल तक कर्मबन्धन होता । (३) जो पूर्णतया विकारसे विरक्त है वह कर्मसे छूट जाता है । (४) शुभ अशुभ दोनों ही कर्म राग उपरागके निमित्तभूत होनेसे बन्धहेतु हैं, प्रतः दोनों हो कर्म प्रतिषेध्य हैं । (५) नैष्कर्म्य अवस्था होनेपर ज्ञानी प्रशरण नहीं होता, किन्तु ज्ञानमें शान समाया होनेसे वह वास्तविक सशरण है और परम अमृत तत्वका अनुभव करता है।
सिद्धान्त-(१) रागी जीव कर्म बौधता है यह उपचार कथन है । (२) रागका निमित्त पाकर कार्माणवर्गरणायें कर्मरूप परिणत होती हैं यह अशुद्ध द्रव्याथिकनयका सिद्धान्त है । (३) अशुद्धद्रव्याथिकका प्रतिपादन व्यवहार है, उपचार नहीं । (४) रागरहित जीव कर्मसे शून्य हो जाता है।