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________________ - .....- .-.-. - . पुण्यपापाधिकार २७६ अय ज्ञानं मोक्षहेतुं साधयति--- परमट्टो खनु समयो मुद्धो जो केवली मुणी णाणी। तमि ठिदा सहावे मुणिणो पावंति णिवाणं ॥१५१॥ परमार्थ समय जो यह, शुद्ध तथा केवली मुनी ज्ञानी । इस ही स्वभावमें रत, मुनिजन निर्धारणको पाते ॥१५॥ परमार्थः खलु समयः मुद्धो यः केवली मुनि नी । तस्मिन् स्थिताः स्वभावे मुनयः प्राप्नुवंति निर्वाणं । ज्ञानं हि मोक्षहेतुः, ज्ञानस्य शुभाशुभकर्मणोरबंधहेतुत्वे सति मोक्षहेतुत्वस्य तथोपपत्तेः । तत्त सकलकर्मादिजात्यंतरविविक्तचिज जातिमात्रः परमार्थ प्रात्मेति यावत्, स तु युगपदेकीभाव प्राकृतशब्द- परमट्ट, खलु, समय, सुद्ध, केबलि, मुणि, पाणि, त, द्विद, सहाव, मुणि, णित्राण । प्राकृतधातु-आव प्राप्ती, गुण ज्ञाने । प्रकृतिशब्द - परमार्थ, खलु, समय, शुद्ध, यत्, केवलिन, मुनि, ज्ञानिन, तत्, स्थित, स्वभाव, मुनि, निर्वाण । मूलधातु - ऋ गतिप्रापणयोः भ्वादि जुहोत्यादि, सम्-अय दृष्टि-१- परकर्तृत्व अनुपरित प्रसद्भूतव्यवहार (१२६)। २-- उपाधिसापेक्ष अशुद्धद्रव्याथिकनय (५३) । ३- उपाधिसापेक्ष अशुद्धद्रव्याथिक प्रतिपादक व्यवहार (७६)। ४- शुद्ध भावनापेक्ष शुद्धद्रध्याथिकनय (२४अ)। प्रयोग-परभावसे राग होनेको बन्धनका मूल जानकर समर रागादि परभावोंसे उपेक्षा करके रागरहित ज्ञानमात्र अन्तस्तत्त्वमें रति, संतुष्टि व तृप्ति करना चाहिये ॥१५०।। अब ज्ञानको मोक्षका कारण सिद्ध करते हैं--[खलु] निश्चयसे [यः] जो [शुद्धः] शद्ध है केवली] केवली है [मुनिः] मुनि है [शानी] ज्ञानी है [परमार्थः समयः] वह परमार्थ समय है [तस्मिन् स्वभावे] उस स्वभाव में [स्थिताः] स्थित [मुनयः] मुनि [निर्वाणं] मोक्षको [प्राप्नुवंति] प्राप्त होते हैं । तात्पर्य-वास्तव में सहज शुद्ध प्रात्मा ही परमार्थ है उसमें जो उपयुक्त होने हैं वे मोक्ष पाते हैं। ___टोकार्थ-ज्ञान ही मोक्षका कारण है, क्योंकि ज्ञानके ही शुभ अशुभ कर्मबंधको हेतुत्ता न होनेपर मोक्षकी हेतुता ज्ञानके ही बनती है ! यह ज्ञान ही समस्त कर्मोको प्रादि लेकर अन्य पदार्थोंसे भिन्न जात्यंतर चिज्जाति मात्र परमार्थस्वरूप प्रात्मा है, और वह एक ही काल में एकरूप प्रवृत्त ज्ञान और परिणमन मय होनेसे समय है। यही समस्त धर्म तथा धर्मीके ग्रहण करने वाले नयोंके पक्षोंसे न मिलने वाला पृथक् हो ज्ञानत्य रूप असाधारण धर्मरूप होनेसे शुद्ध है । वही एक चैतन्यमात्र वस्तुत्व होनेसे केवली है । वही मननमात्र अर्थात् ज्ञानमात्र भावरूप होनेसे मुनि है और वही स्वयमेव ज्ञानरूप होनेसे ज्ञानी वही अपने ज्ञानस्वरूपके
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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