________________
हेतु जीव पुदगलकर्मको भोगता है यह भी व्यवहारममसे कहा जाता है। परमार्थसे जीव न तो पुदगल कर्मको करतो है पोर न पुदगलकमको भोगता है; क्योंकि यदि जीष पुद्गल कर्मको भी करे व भोगे तो एक तो जीव ने अपने परिणामको किया व भोगा और दूसरे पुद्गल कमको भी किया च भोगा तो इस तरह जीव दो दृष्योंकी क्रियाका कर्ता बन जायेगा । ऐसा होनेपर कि क्रियाका उस काल में तादात्म्य रहता है, इस कारण जीव व अजीवमें भेद नहीं रहा अथवा जीव अजीवमें से एकका अथवादोनोंका अभाव हो जायेगा इत्यादि अनेक अनिष्टापत्तियां हो जायेगी। एक वृष्य दो प्रख्योंकी क्रियाका कर्ता है, ऐसा अन भय करने वाला जीव सम्यग्दृष्टि नहीं, किन्तु मिथ्याष्टि है। अर्थात बस्तुस्वरूपसे विपरीत ष्टिवाला है। कर्म उपाधि के निमित्तसे होने वाले कोधादिक औपाधिक भाव हैं, उनका भी जीव सहज भावसे याने उपाधिको निमित्त पाये बिना कर्ता नहीं है । इन क्रोधादिक परभावोंका काम लो जीव है और न कम; किन्तु कमके निमिससे जीवके उपादान में कोधादिक परिणमन होता है। जीव निज, सहज, चैतन्य स्वरूप व क्रोधादि परभावोंमें अन्तर नहीं समझता। इसी कारण यह बन्ध होता है यह मोलिक प्रकृत बात सिद्ध हुई।
अब जिज्ञासा होती है कि इस बन्धका अभाव कैसे हो? समाधान-जीवकी परमायके प्रति किमंकी प्रवृत्ति होनेसे बन्ध होता था । जब कर्ता-कमकी प्रवृत्ति दूर हो जाती है तब बन्धका भी अभाव हो जाता है। प्रपन:- इस कर्ता-कर्मप्रवृतिका अभाव कैसे हो जाता है ? उत्तर:-अब यह जीव आत्मामें व परभावमें इस प्रकार से अन्तर जान लेता है कि वस्तु स्वभावमात्र होती है, मैं बस्तु हूं, सो मैं भी स्वभावमात्र इं। स्वभाव कहते हैं स्वके होनेको, मैं स्वज्ञानमय है। सो जितना ज्ञानका होना है सो तो मै आत्मा है और क्रोधादिका होना कोधादि है, आत्मा (स्ब) व कोधादि-आम्रवों में एकवस्तुता नहीं है । जब जीव ऐसा आत्मा व आखवमें अन्तर जान लेता है तभी कर्माकर्मकी प्रवृत्ति दूर हो जाती है और कर्ता-कर्मकी प्रवृत्ति दूर होनेपर पुद्गल कर्मबन्ध भी दूर हो जाता है।
आत्मा और अनारमा के भेदविज्ञानसे उसी कालमें आरवी निवृत्ति होने लगती है । जानी जीवके इस प्रकारका विशद ज्ञान प्रकट रहता है-मैं आत्मा सहज पवित्र हूं, ज्ञानस्वभाबी हूं. दुःखका अकारण हूं, समई, नित्य है, म्वयंशरण समस्या : ये साव, अमीन है, विरुद्ध स्वभाववाले हैं, दुःख के कारण हैं, विषम हैं, अनित्य हैं, अभरण हैं, दुःखस्वरूप है और इनका दुख ही फल है। मैं एक हूं, शुद्ध हं, मोह रागादि परभावरहित हूं, ज्ञानदर्शनमय हूं, मैं (आत्मा) कर्मके परिणमनको व नोकर्मके परिणमनको नहीं करता है। पुद्गलकर्भ परद्रव्य है। मैं परद्रध्यका झायक तो हूं, किन्तु पर परद्रब्धमें व्यापक नहीं है। अतएव परद्रव्यकी पर्यावरूपसे परिणमता नहीं हूं अर्थात् में परद्र ब्यकी परिणति का कर्ता नहीं हूँ। मैं पुदगलकमके फल सुख दुःखादिको जान तो सकता हूं, किन्तु पुद्गलकमको परिणतिका कर्ता नहीं ई । इसी प्रकार पुद्गल कर्म भी मेरा कर्ता नहीं है।
___ अशुद्ध-निश्चयनय से आत्मा तो मात्र अपने अशुद्ध भावका कर्ता है, उसको निमित्त पाकर पुद्गलद्रव्य कमरूप से स्वयं परिणम जाता है । जैसे कि हवाके चलनेके निमित्तसे समुद्र में तरंग उठती है । निश्चयसे तरंगोंका कर्ता तो समुद्र ही है, हवा तो उसमें निमित्त है। हवामें हवाका कार्य है । समुद्र में समुद्र की परिणति है। प्रत्येक द्रव्यको स्वतन्त्र सत्तात्मकताके ज्ञान से कर्मबन्ध हकता है और परको आत्मा मानने व आत्माको पररूप माननेसे कर्मका बंध होता है । अथबा परको आत्मा माननेवाला अज्ञानी जीव कमका कर्ता होता है। वस्तुत: तो अज्ञानी भी कर्मका कता नहीं है, परन्तु अपने अशुद्ध भावका कर्ता है। उस अशद्धमावको निमित्त पाकर कर्मका आस्रव स्वयं हो जाता है। वस्तुत: कर्मासवका निमित्तरूपसे भी जीव का नहीं है, किन्तु उसके योग व उपयोग जो कि अनित्य हैं, वे अनित्य परिणमन हो वहाँ निमित्त हैं। क्योंकि यह वातस्त्रभाव अटल है कि कोई द्रव्य किसी अन्य दृष्य के रूप या अन्यके गुण-पर्याय रूप नहीं हो सकता। इसलिये यह सुप्रसिद्ध हुआ कि आत्मा पुद्गलकमका का नहीं है।
यहाँ दो रष्टियोंसे यह निर्णय करना चाहिये-(१) निश्चयनयसे जीव पुद्गलकर्मका कर्ता नहीं है। (२) व्यवहारनपसे जीव पुद्गलकर्मका कसा है । (१) निश्यचयनयसे जोन पुद्गलकर्मका भोक्ता नहीं है । (२) व्यवहारनवसे जीव पुद्गलकर्मका मोक्ता है । (१) निश्चयनयसे जीवमें पुद्गलकर्म बद्ध नहीं है । (२) व्यवहारनयसे