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ज्यवहारका उपदेश है, जो कि तीर्थकी प्रव सिके निमित्त बतलाना आवश्यक ही है। अन्यथा षटकायके जीवपर्यायोंको अजीव मानकर जितना चाहे मदित कर दिया जाये, हिसा नहीं होनी चाहिये । फिर तो हिसाके अभाव में बन्धका अभाव व बन्धके अभाव में मोक्षका भी अभाव हो जायेगा अथवा उच्छा खलता आ जायेगी। हाँ निर्विकल्प समाधि के उद्यममें तो शुद्ध चैतन्यस्वरूप ही जीव है, अवशिष्ट भाव सब अजीब हैं, इसी दर प्रतीतिसे काम चलेगा।
बस्ततः जीवका लक्षण चेतना है। जीव वर्ण, मन्धरस, और स्पर्श, शब्दसे रहिस है। जीव वाब चिन्ह से ग्रहणमें नहीं आ सकता । जीवका सहज निघत संस्थान भी कोई नहीं है । तात्पर्य यह है कि चैतन्य भाषके अतिरिक्त अन्य सब भाव अजीव हैं। इसी कारण जीवके वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मूर्तिकता, शरीर, संस्थान संहमन (अस्थिपिंजर) राग, द्वेष, मोह, कर्म, शरीर, विचार, योग, बन्ध, उदय, संकलेश, विशुद्धि आदि कुछ नहीं हैं। ये सब व्यवहारनयसे जीवके कहे गये हैं । व्यवहारनय विरोधक नहीं, किन्तु श्यवहार नय भी वस्तु के किन्हीं भावोंके जानने का एक तरीका है। जैसे कि जिस रास्ते में चलते हुए मुसाफिरों को डाकुओं द्वारा लूटा जाता हो, लोग उस रास्तेको "यह रास्ता लूट लिया जाता है" ऐसा कह देते हैं। परन्तु वास्तव में रास्ता क्या लटेगा, फिर भी व्यवहारसे ऐसा तो कहा ही जाता है, क्योंकि लटने वाले उस रास्ते में होते हैं। इसी प्रकार जीवमें बन्धपर्यायसे स्थित कर्म व शरीरके वर्ण बादिको जानकर व्यवहारमयसे कहा जाता है कि जीव में वर्णादिक है।
वस्तुत: जीवमें वांदिका कुछ भी तादात्म्य नहीं है। यदि जीव के साथ वर्णादिका तादात्म्य मान लिया जाता है तब तो अनेक अनिष्टापत्तियों आती हैं जैसे कि (१) वर्णादिका जिसके साथ तादात्म्य है वह तो पुद्गल कहलाता है, यदि कभी संसारी जीव मुक्त हो तो यही माना जायेगा कि पुदगलको मोक्ष हो गया । (२) जीव अजीवका कोई भेद नहीं रहा; तो जीव का ही अभाव हो गया इत्यादि।
इस प्रकार यह सिद्ध हआ कि जिनका पूगल उपादान है वे परिणमन व जिनका पदगल कार्य निमित्त है ये परिण मन ये सब कोई भी परमार्थसे जीवके नहीं है। इन्हें अजीब कहा गया है।
कत कर्माधिकार अधिकार गाथामें यद्यपि क-कर्मभाव अधिकारकी कोई सपना नहीं है, तो भी जीवाजीवाधिकार के पश्चात् व आस्रव अधिकारके पहले कल कम अधिकारका कहना यह दिखाने के लिये आवश्यक हुआ है कि जब नीव और अजीप स्वतन्त्र द्रव्य है तब जीव व अजीवके सम्बन्ध वध पर्याय कैसे हो जाती है? इसका उत्तर कर्नु फर्माधिकार में किया गया है । जीव व अजीवका सम्बन्ध धन्ध पर्याय कैसे मिट सकती है इसका उत्तर भी उसा दिया गया है। जब तक जीव निज-सहज-स्वरूप ध क्रोधादि औपाधिक भावों में अन्तर नहीं जानता है तब तक क्रोधादि भावाका निज स्वरूपमें जानने के कारण उनमें जीवकी प्रवत्ति होगीठी और क्रोधादिमें वर्तने वाले इस जीवक नामत्तनैमित्तिक सम्बन्धके वशसे पुद्गल कम (अजीव) का संचय हो जाता है। परगल कर्मके आनेका नाम अजीवावध है और जीवमें जो ये क्रोधादिक भाव हये हैं उनका नाम जीवास्रव है। यहां एक प्रश्न हो सकता है कि अजीवास्रवका निमित्त तो निज परमें परस्पर कतकर्मभावकी मान्यता है, इस कतै कर्मभावकी मान्यता में क्या निमित्त है ? उत्तरइस कन-कर्मभावकी मान्यता में पूर्वबद्ध अजीब कर्मका उदय निमित्त है। प्रश्न-इस कर्मास्रव में क्या निमित्त हमा था? उत्तरः- इस कमसिव में पूर्वका स्वपरका कन-कर्म भाव निमित्त हा था। इस प्रकार यह अनादिप्रबाहक्रम चला थापा है। इस स्वपरकर्तृकर्मभाव की प्रवृति भी अनादिसे पली माई है। यद्यपि यहाँ ऐसा सम्बन्ध है कि जीव के परिणामको हेलू पाकर पुदगल कामोणमा
गामको हेतु पाकर पुदगल कार्माणमणायें कर्मरूपसे परिणम जाती है और पुदगल कर्मके उदयको निमित्त पाकर जोबके ऐसे परिणाम हो जाते है, तो भी जीव व पुदगल का परस्पर कतं कर्मभाव नहीं है, क्योंकि जीवन तो पुदगलकमका कोई गण या परिणमन करता है और न पुद्गल कम जीवका कोई गुण या परिणमन करता है । केवल अन्योन्यनिमित्त से दोनोंका परिणमन हो जाता है।
इस ही निमित्त-नैमित्तिक-सम्बन्धके कारण व्यवहारनयसे 'जीब पवगलकम (वष्यासक) का कर्ता' और 'पूदगल जीवाम्रवका का' कहा जाता है। जीवमें अनुभवनशक्ति है, सो वस्तुतः पूदगलकमके उदयको निमित्त पाकर श्रीव अपने में आनन्द-श्रद्धा-पारिवादि गुणोंको विकृत परिणमनरूपसे भोगता है तो भी निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धके