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परन्तु शरीरादिक अजीव पदार्थ व चेतन आत्मा एक कैसे हो सकते हैं ? क्योंकि जीव तो ज्ञानलक्षण वाला है और अजीव ज्ञानरहित है । हे आत्मन् ! तू शरीर नहीं है, किन्तु शरीरका अभी पड़ोसी है, शरीर से भिन्न उपयोग - स्वरूप अपने आरमाको देख
चूंकि जीवलोकको इस शरीररूपमें ही जीवका परिचय रहा है और कभी धर्म भी चला तो इसी पद्धति से । इसी कारण उक्त उपदेशकी बात सुनते ही कोई शिष्य पूछता है कि प्रभो ! शरीरसे भिन्न आत्मा कहाँ है ? शरीर ही जीव है, यदि शरीर हो जीत न होता तो तीर्थंकर देवकी जो ऐसी स्तुति की जाती है कि आपकी कांति दसों दिशाओं में फैल जाती है, आपका रूप बड़ा मनोहारी है, आपके १००८ शुभ लक्षण हैं, इत्यादि सब स्तुति मिथ्या हो जायेगी तथा आचार्य परमेष्ठीको जो स्तुति की जाती है कि आप देण, जाति व काल से शुद्ध है, शुद्ध मन, वचन, काय वाले हैं वही स्मृति भिया हो जायेगी । इसका पूज्य श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्य उत्तर देते हैं
व्यवहारनयसे तो देह व जीवका संयोग परन्तु निश्चयनवसे जीव ही जीव है. देह्
न दो प्रकार के होते हैं (१) व्यवहारमय ( २ ) निश्चयनय । बन्ध है; इसलिये देह व जीव कथंचित् एकत्व मान लिया जाता है, जीव हो ही नहीं सकता । शरीरकी स्तुति से आत्माकी स्तुति व्यवहाररूपसे कथंचित् हो सकती है, निश्चयन्यसे तो शरीर के गुण आत्मा के कुछ नहीं है; इसलिये शरीरकी स्तुतिसे आत्माकी स्तुति नहीं होती, आत्माकी स्तुति से ही आत्माकी स्तुति होती है । यहाँ यह अवश्य जान लेना चाहिये कि जो आत्मा आत्मस्वरूपसे बिलकुल अपरिचित है उसके लिये तो व्यवहारनयसे भी स्तुति नहीं कहला सकती ।
freeतुति किस प्रकार हो सकती है इस विषयपर आते हैं । चूंकि यह निश्चयस्तुति है, इसलिये जो भी विशुद्ध स्थिति कही जावेगी वह आत्माकी ही कही जावेगी । आचार्य पूज्य श्रीमत्कुन्दकुन्द प्रभुके द्वारा कही हुई निश्चय स्तुतिका साथ पूज्य श्री अमृतचन्द्रजी सूरि व्यक्त करते है :- जिन्होंने असंग, अखण्ड चैतन्य स्वभाव के अव लम्बन द्वारा शेय पदार्थोंसे, भावेन्द्रियोंसे व द्रव्यन्द्रियोंसे पृथक् अपनी प्रतीति करके इन्द्रियोंको जीतकर स्वभावमय अपनेको माना है वे जितेन्द्रिय जिन कहलाते हैं। जो द्रव्यमोह व भावमोहसे अलग अपने आत्मा को अपने में सेने के द्वारा मोहको जीतकर परमार्थ सद्रूप ज्ञानस्वभाषमय अपने आत्माको अनुभवते हैं, वे जितमोह कहलाते हैं । ( पुनश्च ) उक्त प्रकार से मोहको जीत लेनेवासे निर्मल आत्माके मोह ऐसा समूल नष्ट हो जाता है कि फिर कभी भी उसका प्रादुर्भाव नहीं हो सकता। ऐसी उन निर्मस आत्माको क्षीण-मोह कहते हैं 1 सवंश, सर्वदर्शी, सहजानन्दमय इस्मादि स्तुति भी निश्चय स्तुति कहलाती है । इन्द्रियोंका विजय आत्मज्ञानसे ही है। वस्तुतः त्याग ज्ञानस्वरूप ही है, क्योंकि परको पर जानकर ही त्याग किया जाता है व पर तो भिन्न है ही मान्यता में एक कर रक्खा था सो सच्चा ज्ञान करना ही उसका त्याग है ।
इस प्रकार प्रासंगिक स्तुति
के बाद अन्त में दिखाया है कि सम्यज्ञानीकी अन्तर्भावना ऐसी होती हैमोह मेरा कुछ नहीं है, मैं तो एक उपयोगमात्र हूं, शेमाकार व शेय पदार्थ मेरा कुछ नहीं है, में तो एक उपयोगमात्र हूं, मैं एक (केवल) हूं, शद्ध है, दमनज्ञानमय हूं, अमूर्त हूँ और अन्य कुछ परमाणुमात्र भी मेरा कुछ भी नहीं है।
प्रजीवाधिकार
इस अधिकारमें उन सब भावोंको भी अजीव बतलाया है जो जीव
स्वरूपम नही
अतः अजीव
आत्माको नहीं जानने वाले अतएव परभावोंको आस्मा मानने वालोंकी विभिन्न धारणायें है। कोई तो राग-द्वेषको, कोई राग द्वेषके संस्कारको, कोई कर्मको, कोई ritesो, कोई कर्मफलको, कोई सुख दुखको, कोई आत्मा व कर्मको मिलावटको इत्यादि अनेक प्रकारसे जीव मानते हैं, किन्तु ये सब जीव नहीं हैं; क्योंकि ये सवं या तो पुद्गलद्रव्यके परिणमन है या कर्मरूप मुलद्रव्यके निमित्तसे हुए परिणमन हैं । .
में अजीव द्रव्य तो है ही, साथ ही औपाधिक भाव भी अजीव है ।
इस अवसर में यह शंका उत्पन्न हो सकती है कि फिर तो जीवसमास, गुणस्थान भादि की चर्चा भगवा स-स्थावर भेद वाले जीव मानना यह सब जैन शास्त्रोंमें क्यों कहा गया है ? इसका उत्तर यह है कि यह स
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