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________________ पाठ १६-व्यवहार द्रव्याथिकनय व पर्यायाथिकनयसे तथा उनके अन्तर्गत निश्वयनय व व्यवहारनपसे जाने गये विषपका कथन करना सो व्यवहार है याने तथ्यके कयनका नाम व्यवहार है। इसका दूसरा नाम उनम है । जितने भी नम हैं उनका कथन किया जाय तो उसने ही व्यवहार हो जाते है। अत: उन व्यवहारों के नाम भी वे ई पड़ जाते हैं, उनके अन्तमें निरूपक व्यवहार इतना शब्द और जोड़ दिया जाता है। फिर भी कई नाम पवहारके ऐसे हैं जिनके शटो से ही कथनप्रकारके हेतुबोंका निर्देश हो जाता है । अतः कुन्छ व्यवहारों के नाम दिये जाते हैं । (६२) भूतनंगमप्रतिपादक व्यवहार, जैसे-भूत कालीन स्थितिको वर्तमान काल में जोड़ने के संकल्पका घटनासम्बन्धित प्रतिपादन । (६३) भाविनगमप्रतिपादक व्यवहार, जैसे-भविष्यत्कालीन स्थितिको वर्तमान में जोड़ने के संकल्पका घटनासम्बन्धित प्रतिपादन । (-४) वर्तमाननेगमप्रतिपादक व्यवहार, जैसे वर्तमान निष्पन्न अनिएको निष्पन्नवत् संकल्पका प्रतिपादन । (६१) परसंग्रह प्रव्याधिक प्रतिपादक व्यवहार, जोसे 'सत' कहकर ममम जीव पुद्गलादिक सतोंके संग्रहका प्रतिपादन करना। (६६) अपर संग्रहदव्याथिक प्रतिपादक व्यवहार, जैसे मन को भेष्ट कर कहे गये जीव ब अजीवमें से जीष कहकर समस्त जीवोंके संग्रहका प्रतिपादन करना। (६६A) परमगुद्ध अपरसग्रहद्रव्वार्थिकप्रतिपादक व्यवहार, जैसे 'ब्रह्म' कहकर सर्व जीवोंमें कारण समयमारका प्रतिपादन करना । (६६B) शुद्ध अपरसंग्रहाच्याधिक प्रतिपादक व्यवहार, जैसे मुक्त जीव कहकर समस्त कर्ममुक्त सिद्ध भगवंतोंका प्रतिपादन करना । (६६C) अश्य अपरसंग्रहवब्याथिकप्रतिपादक व्यवहार, जैसे संमारी जीव कहकर समस्त संसपी जोबोंका पनिपादन करना । (६७) परमसंग्रहभेदक व्यवहारमय दन्यायिक प्रतिपादक व्यवहार, जैसे सत् २ प्रकार के हैं जोय असो व आदि यों परसंग्रहको भेदनेका प्रतिपादन 1 (६८) अपरसंग्रहदक व्यवहारनय द्रव्याधिक प्रतिपादक व्यवहार. जौमे जीव प्रकार के हैं मुक्त संसारी आदि यों अपरसंसहको भेदनेका प्रतिपादन । (६८A) अन्तिम अपरसंग्रहभेदक व्यवहाग्नय प्रत्याधिक प्रतिपादक व्यवहार, जेसे दयणक स्कंध भेद कर एक-एक अणका प्रतिपादन । (६८B) अन्तिम-अखण्डस्चकै ध्यनहारनय दम्याधिक प्रतिधायक व्यवहार, जैसे एक अण, एक जीव आदि अखण्ड सत का प्रतिपादन। (६६) अखण्ड पम्मशुद्ध सद्भुत व्यवहार, जैसे अनाद्यनन्त अहेतुक अखण्ड चैतन्यस्वभावमात्र आत्माका प्रतिपादन । (६EA) गुणमुणि निरपक परमशुद्धसद्भूत-व्यवहार, जैसे आस्माका स्वरूप सहज चैतन्य है आदि प्रतिपादन । (७०) सगुण परमशुद्ध मद्भून व्यवहार, औरी आत्माके सहज अनादि अनन्त चतुष्टयका प्रतिपादन । (७०A) प्रतिषेधक शुद्धनय प्रतिपादक व्यवहार, गैरो जीव पुद्गलकर्मका अफा है आदि कथन । (७१) अभेद शुद्ध सद्भत व्यवहार, जैसे गुर फ्यायमय अस्माका प्रतिपादन । (७२) सभेद शुद्ध सद्भूत व्यवहार, असे आत्माके केवलज्ञान, केवलदर्शन आदि शुद्ध पर्यायवान आत्मा का प्रतिपादन । (७३) कारककारकिभेदक सद्भूत व्यवहार, जैसे आत्माको जानता है आदि एक ही पदार्थ ये कलां कर्म आदि #कों का कथन । (७४) अनुपचरित अशुद्ध सद्भूत व्यवहार, जैसे श्रेणीमत मुनिके गादिक विकारका प्रतिपादन ।। ) उपयरित अशुद्ध सद्भुत व्यवहार, जैसे जीवके व्यक्त क्रोध मान आदि अशीयोंका प्रतिपादन । (६) उपाधिसापेक्ष अशुस द्रष्यार्थिक प्रतिपादक व्यवहार, जैसे पद्गलकर्मविपाकका निमित्त पाकर हये विकृत जीवका प्रतिपादन । (७७) उपचरित उपाधिसापेक्ष पाद्ध प्रतिपादक व्यवहार, जैसे विषयमा पदार्थ में उपयोग देनेपर ये व्यक्त विकारका कथन । (७८) उपाधिनिरपेक्ष शुद्ध ब्याथिक प्रतिपादक व्यवहार, जैरो संसारी जीव मिसदृश शवात्मा है का प्रतिपादन। (७६) उत्पादन्यवगौणसत्ताग्राहक शुद्ध न्यायिक प्रतिपादक ब्यवहार. मे प्रोब्धत्वको मुधनासे देयके नित्यत्वका प्रतिपादन । (40) भेदकल्पनानिरपेक्ष शद्ध द्रव्याथिक प्रतिपादक व्यवहार से निज गुण पर्यायगे अभिन्न द्रव्य है आदि का प्रतिपादन । (८१) उत्पादव्ययसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिका प्रतिपादक व्यवहार, जैमे प्रत्येक वस्य ध्रुध होकर भी उत्पाद व्यय वाला है आदि कथन । (२) भेदकल्पनासापेक्ष अजय द्रव्याथिक प्रतिपादक व्यवहार जैसे आत्मा के ज्ञान, दर्शन, चरित्र आदि गुण हैं आदि कथन । (८.) अन्वय द्रव्याधिक प्रतिपादक व्यवहार, जैसे द्रव्य सदैव
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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