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अपने गुण पर्यायों में व्यापक रहता है आदि कथन । (८४) स्वद्रव्यादिग्राहद्रव्यायिक प्रतिपादक व्यवहार, जैसे जीव स्वदध्यक्षेत्रकालभावसे है आदि कथन । (८५) परद्रव्यादिग्राहकद्रव्याथिकप्रतिपादक व्यवहार, जैसे जीव परद्रव्यक्षेत्रकालभाबसे नहीं है आदि कथन । (८६) परमभावनाहक व्रज्यार्थिक प्रतिपादक व्यवहार, असे अत्मा सहज ज्ञायक स्वभाव है आदि कथन ! (८७) अशुद्ध स्थूल ऋजुसूत्र प्रतिपादक व्यवहार, जैसे नर, नारक, स्कन्ध आदि अशुद्ध द्रज्यव्यञ्जनपर्यायोंका कथन। (८८) शुद्ध स्थूल ऋजुसूत्रप्रतिपादक व्यवहार, जैसे सिद्ध पर्याय, एक अणु, धर्मास्तिकाय आदि पशुश द्रव्य व्यवनपर्यायका कथन । (६) अशुद्ध सुक्ष्म ऋजुसूत्र प्रतिपादन व्यवहार, जैने क्रोध, मान आदि विभाव गुणन्यजनपर्यायोंका कयन । (६०) शुद्ध सूक्ष्म ऋजुसूत्र प्रतिपादक ध्यबहार, जैसे केवलज्ञान, केवलदर्शन, मावि स्वभावगुणग्यजन पर्यायोंका कथन । (६१) अनादिनित्यन्यायाधिक प्रतिपादक श्ययाः, न मे : अकर चल्यालय नित्य है आदि कथन । (६२) सादि नित्य पर्यायाधिक प्रतिपादक व्यवहार, जैसे सिद्ध पर्याय नित्य है आदि शुद्ध होकर सदा रहने वाली पर्यायका कथन । (६३) सत्तागौणोत्पादश्ययग्राहक अशुद्धपर्यायायिक प्रतिपादक व्यवहार, जैसे-समय समय में पर्याय विनश्वर है आदि कमन (६४) सप्तासापेक्ष नित्य अशुद्ध पर्यायायिक प्रतिपादक व्यवहार, जैसे समय समय में यात्मक पर्याय हैं आदि कयन। (६) उपाधिनिरपेक्ष मित्य शुद्ध पर्यायाथिक प्रतिपादक व्यवहार, जैसे संसारियोंकी सिद्ध पर्यायसदा शुद्ध पर्यायोंका कथन 1 (६६) उपाघिसापेक्ष नित्य अशुद्ध पर्यापार्थिक प्रतिपादक व्यबहार, जैसे संसारी जीवोंके इस्पत्ति मरण है आदि कथन । (६७) स्वजात्यसद्भूत व्यवहार, जैसे परमाणु बहुपदेशी है, जीव रागी है आदि कथन । (६५) विजात्यसद्भूत व्यवहार, जैसे मतिज्ञान भूतं है, इश्वमान मनुष्य, पशु जीव है आदि कथन । (६६) स्वजातिविजात्यसद्भूत व्यवहार, जैसे झम जीव अजीव में ज्ञान जाता है आदि कथन । (१००) शब्दनय पर्यायाधिक प्रतिपादक व्यवहार, जैसे ऋजुसत्रतयके विषयको लिंगादि व्याभिचार दूर करके मोग्य शब्दसे कहना। (१०१) समभिरूढनयपर्यावाथिक प्रतिपादकव्यवहार, जैसे शवन यसे निश्चित शब्दसे वाच्य अनेक पदार्थों में से एक रुढ पदार्थका कथन करना । (१०२) एवंभूतनयपर्यायाथिकनय प्रतिपादकव्यवहार, जैसे समभिरूढनयसे निश्चित पदार्थको उसी क्रियासे परिणस होनेपर ही उस शब्दसे कहना।
पाठ १७-उपचार भिन्न-भिन्न द्रव्य गुण पर्यायों में परस्पर एकमें एक दूसरेके द्रव्य गुण पर्यायोंका आरोप करना तथा कर्तापन, कर्मपन, करणपन, संप्रदानपन, अपादानपन, संबंध व आधार बताना उपचार है। उपचार जिस भाषामें कथन करता है उसके अनुसार स्वरूप या घटना नहीं है अतः उपचार मिथ्या है, फिर भी उपचारका वर्णन उपदेश में इस कारण चन्नता है कि उस प्रसंगमें जो प्रयोजन है या निमित्त है उसका संक्षेपतः सुगमतया बोध हो जादै । इस कारण उपचार कुछ प्रयोजनवान है। उपचार के प्रकार इस प्रकार हैं
(१०३) उपाधिज उपचरित स्वभाव व्यवहार, जैसे जीवके मूर्तत्व व अचेतनत्व का कथन । (१०४) उपाधिज उपचरित प्रतिफलन व्यवहार, जैसे क्रोधकर्मके विपाकके प्रतिफलनको क्रोध कर्म कहना । (१०५) स्वाभाविक उपवरित स्वभाव व्यवहार, जैसे प्रभ समस्त पर पदार्थोके ज्ञाता है आदि कथन । (१०६) द्रव्ये द्रव्योपचारक (एकला. तिद्रव्ये अन्यजातिद्रव्योपचारक) असमत व्यवहार जैसे शरीरको जीव कहना । (१०६A) स्वजातिद्रव्ये स्वजातिद्रव्योपवारक असगत व्यवहार, जैसे शरीर मिट्टी है आदि कथन । (१०७) एकजातिपर्याय अन्य जातिपर्यायोपचारक असदमूल म्यवहार, जैसे अन्न ही प्राण हैं आदि कथन । (१०८) स्वजातिपर्याय स्वजातिपर्यायोपचारक असत व्यवहार, जैसे दर्पण में हुये प्रतिमिम्बको दर्पण कहना । (१०६) एक जातिगुणे अन्य जातिगुणोपचारक असद्भूत व्यवहार, जैसे मदिरापानसे अभिभूत मतिज्ञानको मूर्त कहना । (११०) स्वजातिगुणे स्वजातिगुणोपचारक असदभूत व्यवहार, जैसे ज्ञान ही श्रद्धान ह, शान हा चरित्र है आदि कथन । (१११) एकजातिदध्ये अन्यजातिगुणोपचारक असद्भुत व्यवहार, जैसे जीव मुर्तिक है पादि कथन । (११२) स्वजातिद्रव्ये स्वजातिगुणोपचारक असद्भूत व्यवहार, जैसे परमाणुको ही रूप कहना । (११३) एकातिद्रव्ये अन्यजातिपर्यायोपचारक असद्भूत आवहार, जैसे जीव भौतिक हैं आदि कथन । (११४) स्वजातिध्ये